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सुत्रकृतांग सूत्र तीर्थंकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय मार्गरूप यह उत्तम द्वीप बताते हैं। विद्वान् कहते हैं कि यही मोक्ष का प्रतिष्ठान--आधार है।
व्याख्या कर्मपीडित जीवों के लिए यही मार्गरूप उत्तम द्वीप ।
इस गाथा में मार्ग को द्वीप की उपमा देकर उसकी महिमा बताई गई है।
जैसे समुद्र में गिरे हुए और उसकी जल-तरंगों के थपेड़ों से घबराए हुए हारे-थके एवं मरणासन्न प्राणी को कोई दयालु एकान्त-हितैषी आप्त पुरुष श्रेष्ठ द्वीप्त बता देता है तो उसे कितना आधार और आश्वासन मिलता है। इसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय आदि तरंगों के तीव्र थपेड़ों से अनेकभवरूप संसारसागर में इधर-उधर यहाये जाते हुए और कर्मों के उदय से पीड़ित हारे-थके जीव को विश्राम एवं शान्ति पाने हेतु दयालु, एकान्त हितैषी, आप्त, तीर्थकर, गणधर या आचार्य सम्यग्दर्शनादिमय मोक्षमार्गरूप उत्तम द्वीप बताते हैं, उसी को प्राप्त करने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि ये सम्यग्दर्शनादि ही मोक्ष के आधारभूत हैं, मोक्ष की प्राप्ति इसी मार्ग से होती है । परतीथिकों द्वारा सम्यग्दर्शन आदि का ऐसा उत्तम निःस्पृह उपदेश नहीं मिलता है।
मूल पाठ आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाइ, पडिपुन्नमणेलिसं ॥२४॥
संस्कृत छाया आत्मगुप्तः सदा दान्तच्छिन्नस्रोता अनाश्रवः । यो धर्मं शुद्धमाख्याति परिपूर्णमनीदृशम् ॥२४।।
अन्वयार्थ (आयगुत्त) अपनी आत्मा को पाप से सदा गुप्त-सुरक्षित रखने (बचाने) वाला, (जे सया दंते) जो सदा जितेन्द्रिय होकर रहने वाला है, (छिन्नसोए) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि कर्मों के स्रोत-प्रवाह को जिसने तोड़ दिया है, (अणासवे) और जो आस्रवों से रहित साधक है, (पडिपुन्नं अणेलिसं सुद्ध धम्म अक्खाइ) वही सम्यग्दर्शन आदि से या नय-प्रमाण-निक्षेप आदि से पूर्ण अथवा श्रुतचारित्र आदि से परिपूर्ण अनन्यसदृश अनुपम शुद्धधर्म का उपदेश करता है।
भावार्थ जो अपनी आत्मा को सदा पाप से बचाता है, जो सदा जितेन्द्रिय होकर रहता है, जिसने मिथ्यात्व आदि कर्मों के स्रोत को तोड़ दिया है,
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