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मार्ग : एकादश अध्ययन
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जए दंते निव्वाण संधए) इसलिए मुनि सदा यत्नशील और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष की साधना करे।
भावार्थ जैसे चन्द्रमा सब नक्षत्रों में प्रधान है, वैसे ही मोक्ष को सर्वोत्कृष्ट जानने-मानने वाले साधक सबसे श्रेष्ठ (प्रधान) हैं । अत: मुनि सदा प्रयत्नशील और इन्द्रियविजयी होकर मोक्ष की साधना करे।
व्याख्या
मुनि एकमात्र मोक्ष की साधना में जुटा रहे इस गाथा में शास्त्रकार निर्वाण (मोक्ष) को विश्व में सर्वोत्कृष्ट तत्त्व बता कर उसी की साधना में जुटे रहने का साधु को निर्देश करते हैं । निर्वाण का अर्थसच्चा शाश्वत अपरिवर्तनशील सुख है। इसे सर्वश्रेष्ठ मानने वाले परलोकार्थी तत्त्वज्ञ पुरुष निर्वाणवादी होने के कारण नक्षत्रों में चन्द्रमा की तरह सबसे प्रधान हैं। जैसे अश्विनी आदि २७ नक्षत्रों में सुन्दरता, परिमाण और प्रकाशरूप गुणों के कारण चन्द्रमा प्रधान है, इसी तरह मोक्षार्थी तत्त्वज्ञ पुरुषों में वे ही प्रधान हैं, जो पुरुष स्वर्ग, चक्रवर्ती पद या सम्पति की प्राप्ति की इच्छा को ठुकराकर समस्त कर्मों के क्षयरूप मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त हैं, मोक्ष को ही संसार के समस्त पदार्थों में श्रेष्ठ मानते हैं। उसी के लिए वे तत्त्वज्ञ साधक सतत पुरुषार्थ करते हैं, तथा इन्द्रियजयी होकर मोक्ष के लिए अनिश क्रियाएँ करते हैं।
मल पाठ बुज्झमाणाणं पाणाणं, किच्चंताणं सकम्मुणा । आघाइ साहु तं दीवं, पतिठेसा पवुच्चई ॥२३॥
संस्कृत छाया उह्यमानानां प्राणानां, कृत्यमानानां स्वकर्मणा । आख्याति साधु तद् द्वीपं, प्रतिष्ठषा प्रोच्यते ॥२३॥
__अन्वयार्थ (बुज्झमाणाणं) मिथ्यात्व, कषाय आदि की धारा में बहे जाते हुए (सकम्भुणा किच्चंताणं) तथा अपने कर्मों से कष्ट पाते हुए (पाणाणं) प्राणियों के लिए (साहु तं दीवं आघाइ) उत्तम मार्गरूप इस द्वीप को तीर्थकर बताते हैं। (एसा पतिट्ठा पवुच्चई) इसे ही मोक्ष का प्रतिष्ठान-आधार विद्वान कहते हैं ।
__ भावार्थ मिथ्यात्व, कषाय आदि की तीव्र धारा में बहाकर ले जाते हए तथा अपने ही किये हुए कर्मों के उदय से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए
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