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________________ ८३४ सूत्रकृतांग सूत्र करो। क्योंकि ऐसा करने या कहने से जिन लोगों को उन वस्तुओं का लाभ मिलने वाला था, वह साधु के द्वारा निषेध करने या 'पुण्य नहीं है, ऐसा कहने से नहीं मिलेगा। वे प्राणी उन वस्तुओं के अभाव से पीड़ित होंगे, यह भी एक प्रकार की हिंसा हो जायगी। किन्तु जिस दानादि शुभ-कार्य के पीछे कोई हिंसा नहीं होने वाली है या नहीं हुई है, अथवा नहीं होती है, ऐसी अचित्त प्रासुक आरम्भ-रहित वस्तु को कोई दान करना चाहे या किया हो, अथवा कर रहा हो, उसमें उसके शुभ परिणामों की दृष्टि से साधु पुण्य कह सकता है। किन्तु अनुकम्पाबुद्धि से दिये जाने वाले दान का निषेध तो उसे हर्गिज नहीं करना है। अनुकम्पादान का निषेध तो किसी भी जैनशास्त्र में नहीं है। भगवतीसूत्र (८, ६, ३३१) की टीका में स्पष्ट कहा है ___ अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं न कयाइ पडिसिद्ध।' जिनेश्वरों ने अनुकम्पादान का तो कहीं भी निषेध नहीं किया है। इसलिए यहाँ तो सिर्फ सचित्त और आरम्भक्रिया के विषय में साधु को मौन या तटस्थ रहने का उपदेश दिया है, लेकिन शुभभावों की दृष्टि से (क्रिया को एक ओर रखकर) उन शुभक्रियाओं के बारे में कोई पूछता है तो पुण्य कहने में साधु को कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। किन्तु जब कोई व्यक्ति उक्त दानादि शुभकार्यों का आरम्भ कर रहा हो या करने वाला हो और उस समय साधु से पूछे तो उसे तटस्थ रहना चाहिए, यही इन गाथाओं का हार्द है। निष्कर्ष यह है कि सचित्त या आरम्भजन्य दानादि शुभकार्यों में पुष्य या अपुण्य दोनों ही बातों के कहने में कर्मबन्ध होना जानकर उस विषय में साधु मौन या तटस्थ रहे। तथा निरवद्य भाषण के द्वारा कर्म के आगमन को न फटकने देकर ही साधु मोक्षमार्ग पर दृढ़ रहते हैं । ऐसे साधक ही एक दिन मोक्ष प्राप्त करते हैं। मूल पाठ निव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निव्वाणं संधए मुणी ॥२२॥ संस्कृत छाया निर्वाणं परमं बुद्धाः नक्षत्राणामिव चन्द्रमा: । तस्मात् सदा यतो दान्तो निर्वाणं साधये मुनिः ॥२२॥ ____ अन्वयार्थ (णक्खत्ताणं चंदिमा व) जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रधान है, वैसे ही (निव्वाणं परमं बुद्धा) निर्वाण को सर्वोत्कृष्ट मानने वाले पुरुष सर्वश्रेष्ठ हैं। (तम्हा मुणी सदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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