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मार्ग : एकादश अध्ययन
तैयार करना चाहता है या कर रहा है, अथवा कर ली है, और उसे तैयार करने में त्रस या स्थावर प्राणियों की हिंसा की सम्भावना है या हिंसा हुई है और वह साधु से पूछता है कि मेरे इस शुभ कार्य में पुण्य है या नहीं ? तब यदि वह पुण्य होता है, ऐसा कहता है तो उन प्राणियों की हिंसा के अनुमोदन-समर्थन का दोष उसे लगेगा, इसलिए उपर्युक्त दृष्टि से आरम्भक्रिया से युक्त शुभकार्य में साधु 'पुण्य है, ऐसा न कहे। साथ ही वह ऐसा भी नहीं कहे कि पुण्य नहीं होता है, क्योंकि उस व्यक्ति ने जिन लोगों को अनुकम्पाबुद्धि से देने के लिए वे चीजें तैयार की हैं, वह व्यक्ति महाव्रती साधु के मुह से पुण्य नहीं होता है, ऐसे उद्गार सुनकर उनको उन वस्तुओं का दान देने से रुक जायगा। उन लोगों को उन वस्तुओं की प्राप्ति में बहुत बड़ा अन्तराय आ जायगा। उनके जीवन निर्वाह में बाधा उपस्थित होगी। सम्भव है, वे उन वस्तुओं के न मिलने से भूखे-प्यासे मर जाएँ। इस दृष्टि से शास्त्रकार अहिंसाव्रती साधु को वृत्तिच्छेद हिंसा का भागी होने से बचाने के लिए कहते हैं -- 'पुण्य नहीं होता है,' ऐसा भी न कहे । शास्त्रकार साधु को ऐसे मामले में तटस्थ रहने का परामर्श देते हुए कहते हैं-'दुहओ वि ते ण भासंति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो' अर्थात्-उक्त सचित्त या आरम्भजनित शुभक्रिया से पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता, यों दोनों तरह से न कहे, तटस्थ रहे। इस सम्बन्ध में और अधिक स्पष्टीकरण करते हुए शास्त्र कार कहते हैं -- "जेय दाणं पसंसंति""जे य णं पडिसेहति, वित्तिच्छेयं करेंतिते।" अर्थात् जो अहिंसा महाव्रती साधु आरम्भ-जनित या सचित्त दान की प्रशंसा करते हैं, स्पष्ट शब्दों में कहें तो दान के पीछे होने वाले आरम्भ की प्रशंसा करते हैं, वे निष्प्रयोजन ही उक्त आरम्भक्रिया से होने वाले प्राणिवध को अपने पर ओढ़ लेते हैं। इसी प्रकार जो लोग अनुकम्पाबुद्धि से दिए जाने वाले ऐसे दान का निषेध करते हैं, अर्थात् वे सीधा ही कह देते हैं-'किसी को दान मत दो, दान देना पाप है, वे उन प्राणियों की आजीविका का भंग करते हैं, स्पष्ट शब्दों में कहें तो वे उन बेचारे भूखे-प्यासे प्राणियों के पेट पर लात मारते हैं, उनको मिलने वाले लाभ में अन्तराय डालते हैं। प्रश्न होता है-- एक ओर तो शास्त्रकार साधु को ऐसे दानादि शुभकार्य के पीछे किये जाने वाले आरम्भ से अनेक प्राणियों की हिंसा होने के कारण 'पुण्य होता है', ऐसा कहने का निषेध करते हैं, जबकि दूसरी ओर शास्त्रकार उन दानादि शुभ कार्यों में 'पुण्य नहीं होता, ऐसा कहने से भी इन्कार करते हैं, इसके पीछे क्या रहस्य है ? शास्त्रकार का दृष्टिकोण यह है कि जिस दानादि शुभकार्य के पीछे हिंसा होती हो, या होने वाली हो, उसकी प्रशंसा न करो, न उसमें 'पुण्य होता है, ऐसा कहो । तथा जिस शुभ कार्य का लाभ दूसरों को मिलता हो, उनका दुःख मिटता हो, ऐसे शुभकार्य को भले ही वह हिंसायुक्त है, फिर भी 'पुण्य नहीं होता,' ऐसा भी न कहो, और न उसका निषेध
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