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________________ ८३२ सूत्रकृतांग सूत्र ऐसा न कहे, तथा पुण्य नहीं है, ऐसा भी न कहे, क्योंकि ऐसा कहने में महाव्रतों में दोष रूप महाभय की सम्भावना है ||१७|| सचित्त एवं आरम्भजन्य जिस दान के लिए त्रस एवं स्थावर प्राणी मारे जाते हैं, उनकी रक्षा के लिए पूर्ण अहिंसक साधु पुण्य होता है, ऐसा न कहे, इसी प्रकार जिन प्राणियों को दान देने के लिए वह अन्नजल तैयार किया जाता है, उनके लाभ में अन्तराय न हो, इसलिए पुण्य नहीं है, यह भी साधु न कहे - अर्थात् दोनों जगह तटस्य रहे ।। १८-१६ ।। जो सचित्त एवं आरम्भजन्य दान की प्रशंसा करते हैं, के पीछे होने वाले आरम्भ की प्रशंसा करते हैं, वे प्राणियों के पर ओढ़ लेते हैं । इसी प्रकार जो दान का निषेध करते हैं, आजीविका-भंग करते हैं, अर्थात् वे उन प्राणियों के मारते हैं ||२०|| सचित्त एवं आरम्भजनित अन्न-जल आदि के दान में पुण्य होता है, या पुण्य नहीं होता, इन दोनों ही बातों को साधु नहीं कहते हैं । इस प्रकार कर्म का आगमन (आस्रव) त्यागकर, साधु मोक्ष को प्राप्त करते हैं ||२१|| अर्थात् दान वध को अपने वे प्राणियों की पेट पर लात व्याख्या हिंसाजनित पुण्यकार्यों में साधु पुण्य कहे या अपुण्य ? इन पाँच गाथाओं में अहिंसा महाव्रती साधु को अहिंसावत की सुरक्षा के लिए सावधान किया गया है । तथाकथित दानादि शुभकार्य, जिनके पीछे भावना तो शुभ है, लेकिन या तो दातव्य वस्तु सचित्त है, या आरम्भजन्य है, यानी या तो सजीव वस्तु को देने से हिंसा होती है, अथवा वस्तु को बनाने या तैयार करने में छहों काय के जीवों की हिंसा होती है, अतः जिस देय वस्तु के पीछे इस प्रकार की हिंसा संलग्न हो, उस सम्बन्ध में पूर्ण अहिंसक साधु से पूछा जाय कि इस कार्य में पुण्य है या अथवा पुण्य नहीं है ? तब साधु क्या कहे ? शास्त्रकार ऐसे विकट धर्मसंकट के समय साधु को अपने अहिंसामहाव्रत की सुरक्षा के लिए सावधान करते हुए कहते हैं -- 'अत्थित्ति णो वए, णत्थित्ति णो वए ।' अर्थात् वह आरम्भजति उस शुभक्रिया में पुण्य होता है, ऐसा भी न कहे, और पुण्य नहीं होता है, ऐसा भी न कहे । यानी वह दोनों मामलों में तटस्थ या मौन रहे । वह दोनों बातों में तटस्थ क्यों रहे? इसके लिए शास्त्रकार स्वयं कहते हैं - ' दाणट्ट्या य जे पाणा "तेसि लाभंतरायंति तम्हा णत्थित्ति णो वए ।' शास्त्रकार की दृष्टि यह है कि साधु पूर्ण अहिंसाव्रती है, वह मन, वचन और काया से न तो स्वयं हिंसा कर या करा सकता है, और न ही हिंसा का अनुमोदन - समर्थन कर सकता है । ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति दान-धर्मार्थ किसी चीज को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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