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मार्ग : एकादश अध्ययन
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संस्कृत छाया तथा गिरं समारभ्य, अस्ति पुण्यमिति नो वदेत् । अथवा नास्ति पुण्यमित्येवमेतद् महाभयम् ॥१७॥ दानार्थञ्च ये प्राणाः, हन्यन्ते त्रस-स्थावराः तेषां संरक्षणार्थाय, तस्मादस्तीति नो वदेत् ॥१८॥ येषां तदुपकल्पयन्त्यन्नपानं तथाविधम् । तेषां लाभान्तराय इति, तस्मान्नास्तीति नो वदेत् ॥१६॥ ये च दानं प्रशंसन्ति, वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् । ये च तं प्रतिषेधन्ति वत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥२०॥ द्विधाऽपि ते न भाषन्ते, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ।। आयं रजसो हित्वा, निर्वाणं प्राप्नुवन्ति ते ॥२१।।
अन्वयार्थ (तहा गिरं समारभ) उस प्रकार का वचन सुनकर (अस्थि पुण्णंति णो वए) पुण्य है, ऐसा न कहे, (अहवा गत्थि पुण्णंति एवमेयं महब्भयं) अथवा पुण्य नहीं है, ऐसा कहना भी भयदायक है ।।१७।।
(दाणट्ठया) सचित्त अन्नदान या जलदान देने के लिए (जे तसथावरा पाणा हम्मंति) जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं, (तेसि सारक्खणठ्ठाए) उनकी रक्षा के लिए (अस्थित्ति णो वए) पुण्य होता है, यह न कहे ॥१८॥
(जेसि तं तहाविहं अन्नपाणं उवकप्पंति) जिन प्राणियों को दान देने के लिए उस प्रकार का अन्न-पानी बनाया जाता है, (तेसि लाभंतरायंति) उनके लाभ में अन्तराय न हो (तम्हा) इसलिए (नस्थित्ति णो वए) पुण्य नहीं है, यह भी साधु न कहे ।।१६।।
(जे य दाणं पसंसंति) जो दान (सचित्त पदार्थों के आरम्भ से जन्य वस्तुओं के दान) की प्रशंसा (आरम्भ क्रिया करते समय) करते हैं (वहमिच्छति पाणिणं) वे प्राणिवध की इच्छा करते हैं, (जे य णं पडिसेहंति) जो दान का निषेध करते हैं, वे वृत्ति का छेदन (जीविका भंग) करते हैं ॥२०॥
(ते दुहओ वि अस्थि वा णस्थि वा पुणो ण भासंति) साधु उक्त (सचित्त पदार्थों के आरम्भ से जन्य वस्तुओं के) दान में पुण्य होता है या नहीं होता है, ये दोनों बातें नहीं कहते हैं । (रयस्स आयं हेच्चा णं) इस प्रकार कर्मों के आगमन (आस्रव) को त्याग कर (ते निव्वाणं पाउणंति) वे साधु निर्वाण-मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥२१॥
भावार्थ साधु तथारूप आरम्भजनित क्रिया की बात को सुनकर पुण्य है,
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