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सूत्रकृतांग सूत्र
स्वामित्व के (ठाणाई संति) साधुओं के ठहरने योग्य स्थान होते हैं। (आयगुत्ते जिइंदिए) अतः आत्मगुप्त जितेन्द्रिय साधु (हणंतं गाणुजाणेज्जा) मकान आदि बनाने में जीवहिंसा करते हुए किसी भी श्रद्धालु को अनुमति न दे।
भावार्थ ग्रामों या नगरों में धर्मश्रद्धालु श्रावकों की मालिकी के साधुओं के ठहरने के लिए स्थान होते हैं । अतः यदि कोई श्रद्धालु धर्मबुद्धि से मकान आदि बनाने का जीवहिंसामय आरम्भ करे तो जितेन्द्रिय साधु उसे अनुमति
व्याख्या साधु जीवहिंसामय कार्य में अनुमति न दे
इस गाथा में जीवहिंसा के कार्यों के समर्थन से साधु को दूर रहने का निर्देश किया है।
साधु सदा हिंसा-कार्यों से मन-वचन-काया से दूर रहता है। जहाँ भी कोई व्यक्ति हिंसाजनक आरम्भ के कार्य में उससे सलाह माँगता है, या उससे प्रशंसा पाना चाहता है वह तुरन्त सावधान हो जाय, क्योंकि हिंसा का उसने तीन करण तीन योग से त्याग किया है। यदि साधु किसी ग्राम या नगर में किसी श्रद्धालु व्यक्ति के स्थान में ठहरा है, उस समय वह उसका धर्मोपदेश सुनकर धर्म या पुण्य की बुद्धि से कोई धर्मस्थान, धर्मशाला, कुआ, प्याऊ आदि बनवाना चाहता है और साधु से अनुमति चाहता है, या प्रशंसा पाना चाहता है तो साधु उस आरम्भ के कार्य में अपनी अनुमति न दे, न उस कार्य की प्रशंसा करे ।।
मूल पाठ तहा गिरं समारब्भ, अत्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥१७॥ दाणट्ठया य जे पाणा, हम्मति तसथावरा तेसि सारक्खणठाए, तम्हा अत्थित्ति णो वए ॥१८॥ जेसि तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं तेसि लाभंतरायंति तम्हा णस्थित्ति णो वए ॥१६॥ जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिण । जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥२०॥ दुहओ वि ते ण भासंति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो। आयं रयस्स हेच्चा णं, णिवाणं पाउणंति ते ॥२१॥
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