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मार्ग : एकादश अध्ययन
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शंका हो जाए तो (सव्वसो तं न कप्पए) उसे भी साधु को सर्वथा ग्रहण करना उचित नहीं है ।
भावार्थ
शुद्ध आहार यदि आधाकर्मी आहार के एक कण से भी मिश्रित हो तो साधु उस पूर्तिकर्म दोषयुक्त आहार का सेवन न करे, यही शुद्ध संयमी साधु का धर्म है । साथ ही शुद्ध आहार में भी अगर किसी प्रकार की अशुद्धि की आशंका हो तो साधु को उसे भी ग्रहण करना बिलकुल उचित ( कल्पनीय) नहीं है ।
व्याख्या
शुद्ध आहार : मोक्षमार्ग का कारण
इस गाथा में भी शुद्ध आहार पर जोर दिया गया है । आखिर इसका क्या रहस्य है ? इस पर हमने १३वीं गाथा की व्याख्या में प्रकाश डाला है । उसके अतिरिक्त एक कारण यह भी है— 'आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः' यह जो वैदिक उपनिषद् वाक्य है, वह भी अर्थहीन नहीं है । आहार शुद्ध होगा, तभी अन्तःकरण (मन, बुद्धि, हृदय) शुद्ध रहेंगे, और उनके शुद्ध रहने से स्मृति भी निश्चल और प्रखर रहेगी । साधु जब कभी ऐसा दोषयुक्त गरिष्ठ, दुष्पाच्य आहार सेवन करता है, तब प्रायः उसकी बुद्धि कुंठित और स्मृति सुस्त हो जाती है, उसकी बुद्धि में सुन्दर, सात्त्विक विचारों का उदय होना रुक जाता है, उसके शरीर में आलस्य आएगा, स्फूर्ति नहीं रहेगी; तमोगुण का संचार अधिक होगा । इसीलिए शास्त्रकार बार-बार इस पर जोर देते हैं कि साधु को शुद्ध, निर्दोष, सात्त्विक आहार का अल्पमात्रा में सेवन करना चाहिए । यदि अशुद्ध आहार का एक भी कण शुद्ध आहार में मिला हो या अशुद्ध आहार की शंका हो तो उसे ग्रहण या सेवन करना उचित नहीं है, क्योंकि वह संयम में विघात पहुँचाता है । यही सुसंयमी साधु का धर्म है, क्योंकि वह मोक्षमार्ग का पथिक है ।
मूल पाठ हणंतं णाणुजाणेज्जा, आयगुत्त े जिइंदिए ।
ठाणाई संति सड्ढी, गामेसु नगरेसु वा ॥१६॥ संस्कृत छाया घ्नन्तं नानुजानीयादात्मगुप्तो जितेन्द्रियः स्थानानि सन्ति श्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा ॥ १६॥
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अन्वयार्थ
( गामेसु नगरेसु वा ) ग्रामों या नगरों में (सड्ढीणं ) धर्म श्रद्धालु श्रावकों के
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