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सूत्रकृतांग सूत्र
संस्कृत छाया भूतानि च समारभ्य, तमुद्दिश्य च यत्कृतम् । तादृशं तु न गृह्णीयादन्नपानं सुसंयतः ॥१४॥
अन्वयार्थ (भयाइं च समारंभ) जो आहार प्राणियों का आरम्भ (उपमर्दन) करके (तमुहिस्सा य ज कडं) अथवा साधु को देने के निमित्त से बनाया गया है, (तारिस तु अन्नपानं सुसंजए ण गिण्हेज्जा) ऐसे दोपयुक्त आहार-पानी को सुसंयमी साधु ग्रहण न करे।
भावार्थ जो आहार प्राणियों का उपमर्दन करके तथा जो साधुओं को देने के निमित्त से बनाया गया है, उस आहार-पानी को उत्तम साधु ग्रहण न करे।
व्याख्या ऐसा करने से ही मोक्षमार्ग का पालन
पूर्वगाथा की तरह इस गाथा में भी औद्दोशिक एवं आधाकर्म आदि दोष से दूषित आहार ग्रहण करना साधु के लिए निषिद्ध बताया है, क्योंकि ऐसा दूषित आहार ग्रहण करने से हिंसा की परम्परा बढ़ेगी। अगर एक बार साधु ऐसे दोषयुक्त आहार-पानी को ले लेता है तो वह गृहस्थ भक्तिवश बार-बार ऐसा दोषयुक्त आहार तैयार करके देगा। इस तरह बार-बार आरम्भजनित हिंसा का दोष लगेगा; एक गलत परम्परा पड़ेगी, सो अलग । अतः सुसंयमी साधु ऐसा दोषयुक्त आहार-पानी न तो ग्रहण करे और न ही सेवन करे । ऐसा करने से ही उस साधु के द्वारा मोक्षमार्ग का पालन हो सकेगा।
मूल पाठ पूईकम्मं न सेविज्जा, एस धम्मे वसीमओ । जं किंचि अभिकंखेज्जा, सव्वसो तं न कप्पए ॥१५॥
__ संस्कृत छाया प्रतिकर्म न सेवेत , एष धर्मः संयमवतः । यत्किचिदभिकांक्षेत, सर्वशस्तन्न कल्पते ।।१५।।
___ अन्वयार्थ (पूइकम्मं न सेविज्जा) शुद्ध आहार में आधा कर्मी आहार के मिश्रण से युक्तपूर्तिकर्म युक्त ---आहार का सेवन साधु न करे, (वुसीमओ एस धम्मे) शुद्ध संयमी साधु का यही धर्म है । तथा (जं किंचि अभिकंखेज्जा) यदि शुद्ध आहार में भी अशुद्धि की
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