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________________ मार्ग : एकादश अध्ययन ८२७ संस्कृत छाया संवृतः स महाप्राज्ञो, धीरो दत्तषणां चरेत् । एषणासमितो नित्यं, वर्जयन् अनेषणम् ॥१३।। अन्वयार्थ (से संडे महापन्ने धीरे) वह साधु बड़ा धीर, महाप्रज्ञावान इन्द्रियसंयमी है, जो दिया हुआ एषणीय आहार आदि लेता है । (णिच्चं एसणासमिए) तथा जो सदा एषणासमिति से युक्त रहता हुआ (अगेसणं वज्जयंते) अनेषणीय आहार आदि को छोड़ देता है। भावार्थ वह साधु अत्यन्त धीर, इन्द्रियों से संयत एवं महाबुद्धिमान् है, जो दूसरे (गहस्थ) के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहार आदि लेता है। साथ ही जो अनेषणीय आहार को सदा वजित करता हुआ सदा एषणासमिति से युक्त रहता है। व्याख्या मोक्षमार्ग का पथिक साधक एषणासमिति से युक्त हो साधुजीवन की जितनी भी आवश्यकताएँ हैं, वे बहुत सीमित हैं; खाने-पीने के लिए थोड़ा-सा आहार-पानी, थोड़े-से वस्त्र-पात्र तथा कुछ पोथी-पन्ने आदि । किन्तु महाश्रमण महावीर कहते हैं कि इन थोड़ी-सी आवश्यकताओं की भी पूर्ति साधु निर्दोष भिक्षावृत्ति से करे । क्योंकि ऐसा करने पर ही उसका अहिंसा, सत्य, अचौर्य एवं अपरिग्रह महाव्रत पूर्णतया सुरक्षित रह सकते हैं। अन्यथा उद्गमादि दोषों से युक्त आहारादि लिया तो उसका अहिंसावत खतरे में पड़ जाएगा, किसी को ठगकर या छलप्रपंच करके कोई वस्तु प्राप्त की तो सत्य महाव्रत को क्षति पहुँचेगी, किसी से छीनकर या बिना दिये कोई चीज उठा ली तो अचौर्य महाव्रत छिन्न-भिन्न हो जाएगा, स्वाद-लोलुपतावश मर्यादा से अधिक या लालसापूर्वक आहारादि ग्रहण किया तो अपरिग्रहवत्ति का भंग हो जाएगा। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं -- 'दत्त सणं चरे, एसणासमिए णिच्चं वज्जयंते अणेसणं ।' तात्पर्य यह है कि महाव्रती, महाप्राज्ञ, धीर संयमी साधु गृहस्थ के यहाँ से भिक्षावृत्ति से जो कुछ निर्दोष, एषणीय, कल्पनीय वस्तु प्राप्त हो, उसी में यथालाभ सन्तुष्ट होकर निर्वाह करे। यही मोक्षमार्ग के पथिक के लिए उचित है। मूल पाठ भूयाइं च समारंभ, तमुद्दिस्सा य जं कडं । तारिसं तु ण गिण्हेज्जा, अन्नपाणं सुसंजए ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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