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मार्ग : एकादश अध्ययन
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नामक अध्ययन से तथा अन्य शास्त्रों से जान लेनी चाहिए। इसी प्रकार स्थावर जीवों के बाद त्रसजीवों को भी भेद-प्रभेद सहित जान लेना चाहिए। इन षट्जीवनिकायों में संसार के सभी कोटि के प्राणी आ जाते हैं, इनसे कोई भी प्राणी अवशिष्ट नहीं रहा। इनके सिवाय जीवों का और कोई प्रकार नहीं है। इन सब जीवों का अस्तित्व युक्ति-प्रत्युक्ति, अनुभति और शास्त्र वचनों से भली-भाँति जान कर तथा यह भी जानकर कि समस्त प्राणियों को, चाहे वे छोटे हों या बड़े, लघुकाय हों या विशालकाय, सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है, किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, तन से ही नहीं, मन और वचन से भी। तथा हिंसा स्वयं भी न करे, वैसे ही दूसरों से भी न कराए और न ही किसी हिंसा का समर्थन-अनुमोदन करे। सिद्धान्तों या शास्त्रों का ज्ञान अर्जित करने का सार भी यही है कि वह मन-वचन-काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता। अहिंसा का सारा सिद्धान्त इतने में ही आ गया, यह समझ लेना चाहिए।
आशय यह है कि जीवों का स्वरूप तथा उनकी हिंसा से होने वाले कर्मबन्ध को जानने वाले ज्ञानी का प्रधान कर्तव्य है कि वह हिंसा से सर्वथा निवृत्त हो। जो ज्ञानी यह जानता है कि समस्त प्राणियों को दुःख अप्रिय है, सुख प्रिय है ; दुःख को सभी बुरा मानते हैं, और सुख को अच्छा । ऐसी स्थिति में ज्ञानी यह भी समझ लेता है कि मुझे कोई दुःख देता है तो पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा दूसरे प्राणियों को दुःख देने से उनको होती है। इस आत्मौपम्य सिद्धान्त को जानकर किसी भी प्राणी को दुःख या पीड़ा न पहुँचाना ही महाज्ञानी के ज्ञान का सार है। दूसरों को पीड़ा देने से निवृत्त रहना ही सच्चा ज्ञान है। इसीलिए कहा है---
किं ताए पढियाए पयकोडीए पलालभूयाए ।
जस्थित्तियं ण णायं, परस्स पीडा न कायव्वा ।। अर्थात-घास के ढेर के समान करोड़ों पदों के पढ़ने से क्या मतलब सिद्ध हुआ, जिनके पढ़ने से इतना भी ज्ञान न हो सका कि किसी दूसरे जीव को पीड़ा न देनी चाहिए ?
__ निष्कर्ष यह है कि अहिंसा समर्थक शास्त्र का इतना सिद्धान्त जानना ही पर्याप्त है । अन्य बहुत-सी जानकारी से कोई मतलब सिद्ध नहीं होता।
फिर शास्त्रकार क्षेत्रप्राणातिपात से निवृत्त होने की बात कहते हैं - 'उड्ढे अहेयं तिरियं जे केइ तसथावरा'- अर्थात् ऊपर, नीचे और तिरछे लोकों में जो भी स्थावर या त्रस जीव हैं, उन सबकी हिंसा से निवृत्त रहना चाहिए। जो पुरुष ऐसा करता है, वही वस्तुतः ज्ञानी है। जीवहिंसा से निवृत्त रहना ही दूसरे की शांति का कारण होने से शान्ति है। जो पुरुष जीवहिंसा नहीं करता, उससे कोई भी प्राणी
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