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सूत्रकृतांग सूत्र
जो कोई त्रस और स्थावर प्राणी हैं, (सम्वत्थ विरति कुज्जा) सर्वत्र उनकी हिंसा से निवृत्त (दूर) रहना चाहिए। (संति निव्वाणमाहियं। इस प्रकार जीव को शान्तिमय निर्वाण की प्राप्ति कही गई है ॥११॥
भावार्थ पृथ्वी जीव है, पृथ्वी के आश्रित भी पृथक्-पृथक् जीव हैं, एवं जल और अग्नि भी जीव हैं। वायूकाय के भी जीव पथक-पृथक हैं । इसी प्रकार तृण, वृक्ष और बीज के रूप में वनस्पतियाँ भी जीव हैं ।।७।।
पूर्वोक्त पाँच और इसके अतिरिक्त छठे त्रसकाय वाले जीव होते हैं। यों तीर्थंकरों ने जीव के ६ भेद बताए हैं, इनसे भिन्न और कोई जीव का (मुख्य) प्रकार नहीं होता ।।८।।
बुद्धिमान समस्त युक्तियों से इन जीवों में जीवत्व सिद्ध करके देखे कि सभी को दुःख अप्रिय है, यह जानकर किसी भी जीव की हिंसा न करे।।९।।
ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार यही है कि वह किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता । अहिंसा के समर्थक शास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्त जानना चाहिए ॥१०॥
ऊपर, नीचे और तिरछे लोक में जो त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं, उन सबकी हिंसा से विरत रहना चाहिए । इसी से जीव को शान्तिमय निर्वाण-मोक्ष की प्राप्ति कही गई है ॥११॥
व्याख्या अहिंसा का आचरण ही मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग है
___ सातवीं गाथा से ग्यारहवीं गाथा तक अहिंसा के आचरण का उपदेश देकर उसी को मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग बताया है। वास्तव में साधक के लिए पद-पद पर प्रत्येक प्रवृत्ति में अहिंसा का-वह भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की हिंसा से विरति का
-मार्ग स्वीकार करना श्रेयस्कर है। सातवीं आठवीं गाथा में शास्त्रकार जीवों के मोटे तौर पर निकाय (संघात) की जानकारी देते हैं, ताकि अहिंसा का आचरण करने वाला साधक यह भली भाँति जान-समझ ले कि जीव कहाँ-कहाँ, किस-किस प्रकार से अपना अस्तित्व टिकाए हुए रहते हैं। फिर उनकी मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदित रूप से किसी भी प्रकार से हिंसा न करे, यानी दस प्रकार के प्राणों में से किसी भी प्राण को चोट या हानि न पहुँचाए। धर्म और समाधि नामक अध्ययन में पृथ्वीकाय से लेकर त्रसजीवों का भेद-प्रभेदसहित वर्णन किया जा चुका है। प्रथम तो साक्षात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँचों अपने आप में जीवरूप हैं। साथ ही इन सबके आश्रित जो जीव रहते हैं, वे सब पृथक्-पृथक् जीव हैं। इनमें जीव के अस्तित्व की सिद्धि आचांराग के शस्त्र-परिज्ञा
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