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________________ ८१६ सूत्रकृतांग सूत्र किन्तु कारणवश द्रव्यलिंग को छोड़ रखा है, वह क्षेम तथा अक्षेमरूप दूसरे भंग का धनी है। (३) तीसरे भंग में निह्नव हैं, जो अक्षेम और क्षेमरूप है। तथा (४) थौथे भंग में गृहस्थ और परतीथिक हैं, जो अक्षेम और अक्षेमरूप हैं। इसी प्रकार ये चारों भंग मार्ग आदि में भी समझ लेने चाहिए। सम्यक्मार्ग और मिथ्यामार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप तीन प्रकार का भावमार्ग सम्यग्दृष्टि तीर्थंकर, और गणधर आदि ने प्रतिपादित किया हैं। वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताने के कारण सर्वज्ञ तीर्थंकरों और गणधरों ने इन्हें भावमार्ग कहा है। तथा उन्होंने इनका आचरण भी किया है। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है—'सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' इसके विपरीत चरक, परिव्राजक आदि द्वारा सेवन किया जाने वाला मार्ग मिथ्या एवं अप्रशस्त है, क्योंकि उसमें हिंसाजनक कर्मकाण्डों का वर्णन है। अप्रशस्तमार्ग दुर्गतिफलदायक है। षट्काय के जीवों का घात करने वाले जो पार्श्वस्थ या स्वयथिक हैं, उनका पकड़ा हुआ मार्ग भी कुमार्ग ही है। जो धर्माचरण में शिथिल हैं, ऋद्धि, रस, सुखसाता और मान-बड़ाई आदि में जो गुरुकर्मी रचे-पचे रहते हैं, जो प्रायः आधाकर्मी आहार का उपभोग करके षड्जीवनिकाय का घात करते हैं, और स्वयं द्वारा आचरण किये जाने वाले शिथिलाचार का ही उपदेश देते हैं, ऐसा शिथिल आचरण करने वाला परतीर्थी हो या स्वयूथिक, वह कुमार्ग पर है। प्रशस्तमार्ग या सत्यमार्ग वह है, जिसमें तप, संयम प्रधान हैं। १८ हजार शील के भेदों का जिसमें पालन करने वाले उत्तम साधुत्व के लक्षणों से युक्त हैं, वह मार्ग समस्त प्राणिवर्ग के लिए हितकर, सर्वप्राणिरक्षक है, उसमें नौ तत्वों का स्वरूप स्पष्टतः प्रतिपादित है। सत्यमार्ग के एकार्थक शब्द नियुक्तिकार ने सत्यमार्ग के एकार्थक १३ शब्दों का प्रयोग किया है वे । इस प्रकार हैं--- (१) पंथ (सम्यक्त्वरूप देश से ज्ञान या चारित्ररूप इष्ट देश तक पहुँचाने वाला) (२) मार्ग (आत्मा जिसमें पहले से अधिक निर्मल होता हो) (३) न्याय (जिसमें विशिष्ट स्थान की प्राप्ति अवश्य हो) (४) विधि (सम्यग्दर्शन और ज्ञान की एक साथ प्राप्ति हो) (५) धृति (सम्यग्दर्शन आदि होने पर चारित्र की जो प्राप्ति हुई है, उसे स्थिर रखने के लिए धैर्य हो) (६) सुगति (सुगति की प्राप्ति कराने वाला) (७) हित (मुक्ति प्राप्ति का कारण) (८) सुख (सुख का कारण) (६) पथ्य (जो मोक्षमार्ग का हितकर हो) (१०) श्रेय (मोह आदि ११वें गुणस्थान उपशान्त होने से श्रेयस्कर हो) (११) निवृत्ति (संसार से निवृत्ति का कारण) (१२) निर्वाण (चार प्रकार के घाती कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्राप्त होने से) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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