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समाधि: दशम अध्ययन
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मूल पाठ सुद्ध सिया जाए न दूसएज्जा, अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने । धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी,न सिलोयगामी य परिव्वएज्जा॥२३॥
__ संस्कृत छाया शुद्ध स्याज्जाते न दूषयेत् अमूच्छितो न चाध्युपपन्नः । धृतिमान् विमुक्तो न च पूजनार्थी, न श्लोककामी च परिव्रजेत् ।।२३॥
___ अन्वयार्थ (सिया सुद्ध जाए न दूसएज्जा) उद्गमादि-दोषरहित शुद्ध आहार मिलने पर साधु राग-द्वेष करके चारित्र को दूषित न करे। (अमुच्छिए ण य अज्झोक्वन्ने) तथा उस आहार में मूच्छित होकर बार-बार उसकी लालसा न रखे । (धितिमं विमुक्के) साधु धृतिमान और बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त बने । (ण य पूयणट्ठी न य सिलोयगामी) साधु अपनी पूजा-प्रतिष्ठा और कीर्ति की कामना न करे। (परिव्वएज्जा) किन्तु शुद्ध संयम-पालन में उद्यत रहे ।
भावार्थ उद्गमादि दोष से रहित शुद्ध आहार प्राप्त होने पर साधु राग-द्वेषयुक्त होकर चारित्र को दूषित न करे। तथा उत्तम आहार में मूच्छित न हो और न ही बार-बार वैसे आहार की लालसा रखे। साधु धैर्यवान और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त होकर रहे; तथा वह अपनी पूजा-प्रतिष्ठा और कीति की अभिलाषा न रखते हुए शुद्ध संयम का पालन करे ।
व्याख्या
___ आचारसमाधि के लिए क्या हेय उपादेय ? साधु को आचारसमाधि के लिए कुछ बातें त्याज्य समझनी चाहिए और कुछ उपादेय। (१) यदि निर्दोष आहार प्राप्त हुआ हो तो उस आहार का सेवन करते समय राग-द्वष न करे, क्योंकि मनोज्ञ आहार के प्रति आसक्ति होगी, और अमनोज्ञ के प्रति घृणा होगी तो साधु अपने चारित्र को दूषित कर लेगा। (२) मनोज्ञ सरस आहार में मूच्छित न हो, और न ही बार-बार वैसे आहार की अभिलाषा करे । (३) अपनी पूजा-प्रतिष्ठा और कीर्ति की कामना न करे । (४) धृतिमान हो और (५) बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से विमुक्त हो ।
इस दृष्टि से आचारसमाधि के लिए तीन बातें त्याज्य हैं, और दो बातें उपादेय हैं।
निर्दोष आहार का सेवन भी निर्दोष ढंग से करे तो उसका निर्दोष आहार लाना सफल है । कहा भी है
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