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सूत्रकृतांग सूत्र बायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ! न ह छलिओ।
इण्हि जह न छलिजसि भुजंतो रागदोसेहिं ।।
"हे जीव ! ब्यालीस दोषरूप गहन संकट में तो तूने धोखा नहीं खाया, लेकिन अब उस भोजन को सेवन करते समय तू रागद्वेष करके धोखा नहीं खाएगा तो तेरा निर्दोष आहार लाना और करना सब सफल है।” साथ ही सरस आहार मिलने पर साध रागवश उसे बार-बार पाने की इच्छा न करे, किन्तु केवल संयम के निर्वाह के लिए यथाप्राप्त आहार करे । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अच्छा आहार मिलने पर प्रायः ज्ञानी पुरुष की भी विशिष्ट अभिलाषा हो जाती है, इसलिए शास्त्रकार कहते हैं--'अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने' अर्थात् प्राप्त सरस आहार में मूच्छित न हो और अप्राप्त सरस आहार की इच्छा न करे। किसी अनुभवी साधक ने कहा है
भुत्तभोगो पुरा जोऽवि गीयत्थोऽवि य भाविओ। संतेसाहारमाईसु, सोऽवि खिप्पं तु खूभइ ॥
- 'जो मुक्त भोगी है, गीतार्थ है एवं जो आत्म-भावना में सदा प्रवृत्त रहता है । वह साधक भी उत्तम आहार प्राप्त होने पर शीघ्र उसकी आकांक्षा करने लगता है।' बाकी जो हेय बातें हैं, वे भी स्पष्ट हैं और उपादेय भी स्पष्ट हैं।
मूल पाठ निक्खम्म गेहा उ निरावकंखी, कायं विउसेज्ज नियाणछिन्ने । णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, चरेज्ज भिक्खू बलया विमुक्के ॥२४॥
॥त्ति बेमि॥
संस्कृत छाया निष्क्रम्य गेहात्तु निरवकांक्षी, कायं व्युत्सृजेच्छिन्ननिदानः । नो जीवितं, नो मरणावकांक्षी, चरेद् भिक्षुर्वल याद् विमुक्तः ॥२४॥
॥इति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ (गेहा उ निक्खम्म) साधु घर से निकलकर यानी दीक्षा धारण करके (निरावकंखी) अपने जीवन में निरपेक्ष हो जाय । (कायं विउसेज्ज) तथा शरीर का व्युत्सर्ग करे, (नियाणछिन्ने) तथा अपने तप के फल की कामना (निदान) न करे, (वलया विमुक्के) संसार (दुनियादारी) के चक्कर से विमुक्त होकर (णो जीवियं णो मरणावकखी चरेज्ज) वह जीवन और मरण की आकांक्षा न रखता हुआ विचरण करे ।
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