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________________ ८१० सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया मृषा न ब्रू यान्मुनिराप्तगामी, निर्वाणमेतत् कृत्स्नं समाधिम् । स्वयं न कुर्यान् न च कारयेत्, कुर्वन्तमन्यमपि च नानुजानीयात् ।।२२।। अन्वयार्थ (अत्तगामी मुणि मुस न बूया) आप्त पुरुषों (सर्वज्ञों) के मार्ग पर चलने वाला मुनि झूठ न बोले । (एयं णिव्वाणं कसिणं समाहि) यह असत्यभाषण का त्याग ही निर्वाण-मोक्ष है और यही भावसमाधि कही गई है। (सय न कुज्जा, न य कारवेज्जा, करंतमन्नं पि य ण अणुजाणे) साधु स्वयं असत्य का तथा दूसरे महाव्रतों के अतिचारों -दोषों का स्वयं सेवन न करे, दूसरे से सेवन न कराए, और इनका सेवन करते हुए अन्य व्यक्ति को भी अच्छा न समझे। भावार्थ सर्वज्ञ आप्त पुरुषों के मार्ग का अनुयायी साधु असत्य न बोले, क्योंकि इस असत्यभाषण के त्याग को ही सम्पूर्ण भावसमाधि और मोक्ष कहा गया है। इसी तरह साधु हिंसा, झूठ आदि पापों या अन्य व्रतों के दोषों का सेवन स्वयं न करे, दूसरे से सेवन न कराए और जो इनका सेवन करता हो उसे अच्छा न समझे। व्याख्या असत्य एवं अन्य पापों से दूर रहना ही सम्पूर्ण समाधि इस गाथा में समस्त पापों से दूर रहने को हो सम्पूर्ण समाधि या निर्वाण कहा गया है। साधक को असत्य आदि पापों का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग क्यों करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं—'अत्तगामी ।' आप्तगामी का अर्थ है-आप्त पुरुषों के बताए मार्ग पर चलने वाला। आप्त के अर्थ होते हैं- आप्त यानी मोक्षमार्ग, या हितैषी, या वीतराग, रागादि दोष जिसके नष्ट हो गए हों, वह महापुरुष, अथवा सर्वज्ञ, उनके बताए मार्ग पर चलने वाला आप्तगामी है। आप्तगामी होने के कारण मुनि झूठ न बोले । असत्य-त्याग ही मोक्ष है, वही सम्पूर्ण भावसमाधि बताई है। स्नान-भोजन आदि से या शब्दादि विषयों के सेवन से जो सांसारिक समाधि उत्पन्न होती है, वह निश्चित या आत्यन्तिक नहीं है, असम्पूर्ण है, जबकि यह समाधि निश्चित, आत्यन्तिक और सम्पूर्ण है। अत: साधु असत्य आदि समस्त पापों को या व्रतों से सम्बन्धित अतिचारों (दोषों) का तीन करण और तीन योग से त्याग करे। तभी वह सम्पूर्ण समाधि का आराधक हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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