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________________ समाधि : दशम अध्ययन ८०६ संस्कृत छाया सम्बुध्यमानस्तु नरो मतिमान पापात्त्वात्मानं निवर्तयेत । हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्त्वा, वैरानुबंधीनि महाभयानि ॥२१॥ __ अन्वयार्थ (संबुज्झमाणे उ मतीमं णरे) धर्म को सम्यक् प्रकार से समझने वाला बुद्धिमान साधक (अप्पाण पावाउ निबट्टएज्जा) अपनी आत्मा को पापकर्म से निवृत्त करे। (हिंसप्पसूयाई वेराणुबंधीणि महन्भयाई दुहाई मत्ता) हिंसा से उत्पन्न कर्म वैर बाँधने वाले हैं, वे महाभयोत्पादक हैं तथा दुःख देते हैं, यह मानकर हिंसा न करे। भावार्थ धर्म के तत्त्व को समझने वाला बुद्धिशाली पुरुष अपने आपको पाप से दूर रखे। क्योंकि हिंसा से उत्पन्न पापकर्म जन्मजन्मान्तर तक वैर बंधाने वाले होते हैं, वे अत्यन्त खतरनाक एवं दुःखदायी होते हैं, यह जानकर साधक हिसा न करे । व्याख्या ___ समाधिधर्मज्ञ हिंसादि पापों से दूर रहे इस गाथा में शास्त्रकार यह बताते हैं कि समाधिधर्म को समझने वाला साधक हिंसादि पापकर्मों से दूर रहे। ऐसे साधक के लिए दो विशेषण यहाँ प्रयुक्त किये गये हैं.---- संबुज्झमाणे मतीमं अर्थात जो साधक प्रशंसनीय बुद्धि से युक्त है, मुमुक्षु है, श्र त-चारित्ररूप धर्म या भावसमाधिरूप धर्म को समझता है। वह शास्त्रविहित कर्मों में प्रवृत्त होने से पहले निषिद्ध कर्मों (पापों) का त्याग करे, यानी हिंसा, झूठ आदि पापकर्मों से अपने आपको अलग रखे। क्यों अलग रखे ? इसके लिए कहते हैं ---"हिंसप्पसूयाई... '' महन्भयाणि', क्योंकि हिंसा से जन्य पापकर्म अत्यन्त भयानक, वैरपम्परा बांधने वाले तथा दुःखदायक होते हैं। अर्थात् हिंसा से सैकड़ों जन्मों तक प्राणियों के साथ वैर चलता है, वह नरव आदि महादुःखमय स्थानों में ले जाता है। वह पाप बहुत ही भयजनक है। यह जानकर साधक स्वयं को पाप से दूर रखे । यहाँ 'निव्वाणभूएव्व परिबएज्जा' पाठान्तर भी है, जिसका भावार्थ हैजैसे युद्ध से लौटा हुआ पुरुष निवृत्त होकर किसी की हिंसा नहीं करता, वैसे सावद्यानुष्ठान से रहित पुरुष किसी की हिंसा न करे, संयम पालन में प्रगति करे । मूल पाठ मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहि । सयं न कुज्जा न य कारवेज्जा, करंतमन्नं पि य णाणुजाणे ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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