________________
८०८
सूत्रकृतांग सूत्र
समाधि को नहीं प्राप्त कर सकते । बल्कि अत्यन्त दुःख से जो धन उसने कमाया था, उसे उसके मरते ही दूसरे लोग हड़प जाते हैं, वह पछताता हुआ पापकर्म की गठड़ी सिर पर लिए हुए परलोक को विदा हो जाता है। यह है ममत्व के पुतलों की समाधिहीन दशा ! यह जानकर साधक को इन सबके प्रति ममत्व एवं पापकर्म का सर्वथा त्याग करके समाधिनिष्ठ बनना चाहिए।
मूल पाठ सीहं जहा खुड्डमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा । एवं तु मेहावी समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥२०॥
संस्कृत छाया सिंहं यथा क्षुद्र मगाश्चरन्तो, दूरे चरन्ति परिशंकमानाः । एवं तु मेधावी समीक्ष्य धर्मं दूरेण पापं परिवर्जयेत् ॥२०॥
अन्वयार्थ (चरंता खुड्डमिगा सीहं परि संकमाणा) वन में विचरण करते हुए छोटे-छोटे मृग सिंह के भय के आशंकित होते हुए (दूरे घरंती) दूर ही चरते हैं या विचरण करते हैं। (एवं तु मेहावी धम्म समिक्ख) इसी प्रकार बुद्धिमान साधक धर्म की रक्षा का विचार करके पाप से शंकित हुए (पावं दूरेण परिवज्जएज्जा) पाप का दूर से ही त्याग कर दे।
भावार्थ जैसे वन में विचरते हुए छोटे मृग मृत्यु की आशंका से सिंह से बहुत दूर चरते हैं या विचरते हैं, इसी तरह बुद्धिमान साधक धर्म की रक्षा का विचार करके पाप से शंक्ति होकर दूर से ही पाप को तिलांजलि दे दे।
व्याख्या समाधिप्रार्थी साधक पाप को पास न फटकने दे ।
शास्त्रकार एक दृष्टान्त द्वारा पाप से दूर रहने की बात समझाते हैं। जैसे मृग आदि छोटे-छोटे पशु अपने आहार की तलाश में घूमते हुए अपना घात करने वाले सिंह से डरकर दूर-दूर विचरते हैं, वैसे ही मर्यादाशील मेधावी मुनि धर्म की घात वाले पाप की आशंका से उससे मन-वचन काया से दूर ही रहे, पाप को पास न फटकने दे। अपना जीवन ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपरूप धर्म के आचरण में लगाए, तभी समाधि प्राप्त होगी।
मूल पाठ संबुज्झमाणे उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा । हिंसप्पसूयाइं दुहाई मत्ता, वेराणुबंधोणि महब्भयाणि ॥२१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org