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________________ समाधि : दशम अध्ययन ७८३ चारित्रसमाधि में स्थित मुनि धन से हीन होने पर भी विषय-सुख से नि.स्पृह होने के कारण परम शान्ति का अनुभव करता है । इसीलिए एक अनुभवी ने कहा है तणसंथारणिसन्नोऽपि मणिवरो भट्ठरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुह, कत्तो तं चक्कवट्टीवि ॥ नैवास्ति राजराजस्य, तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ अर्थात् - जो साधु राग, मद और मोह से दूर है, वह घास (तृण) की शय्या पर स्थित होकर भी जिस आनन्द का अनुभव करता है, वह चक्रवर्ती राजा को भी नसीब कहाँ ? सांसारिक प्रवृत्तियों से रहित मुनि को जो सुख इसी लोक में प्राप्त होता है, वह सुख राजाओं के राजा को अथवा देवराज को भी प्राप्त नहीं हो सकता। तप:समाधि में स्थित मुनि को बाह्य दीर्घ तप करने पर भी ग्लानि नहीं होती, तथा क्षुधा, तृषा आदि परीषहों से वह पीड़ित नहीं होता है एवं आभ्यन्तर तप का अभ्यास किया हुआ मुनि ध्यान में दत्तचित्त होने के कारण मोक्ष में स्थित आत्मा की तरह सुख-दुःख से पीड़ित नहीं होता। इस तरह चार प्रकार की भावसमाधि में स्थित साधु सम्यक्चारित्र में स्थित होता है। अब प्रसंगवश समाधि के विषय में प्रथम गाथा इस प्रकार है मूल पाठ आघं मईममणुवीय धम्म, अंजू समाहि तमिणं सुणेह । अपडिन्न भिक्खू उ समाहिपत्त, अणियाण भूतेसु परिव्वएज्जा ॥१॥ संस्कृत छाया आख्यातवान् मतिमान् अनुविचिन्त्य धर्म, ऋजु समाधि तमिमं शृणुत। अप्रतिज्ञभिक्षुस्तु समाधिप्राप्तोऽनिदानो भूतेषु परिव्रजेत् ॥१॥ अन्वयार्थ (मईमं) केवलज्ञानी भगवान महावीर ने (अणुवीय) केवलज्ञान के द्वारा जानकर (अंजू समाहि धम्म आघं) सरल समाधि (मोक्षप्रदायक) धर्म का कथन किया है, (तमिणं सुह) हे शिष्यो ! उस धर्म को तुम मुझसे सुनो (अपडिन्न) अपने तप का फल नहीं चाहता हुआ (समाहिपत्त) समाधि को प्राप्त, (अणियाण भूतेसु) प्राणियों का आरम्भ न करता हुआ (भिक्खू सुपरिव्वएज्जा) मुनि शुद्ध संयम पालन में प्रगति करे। भावार्थ केवलज्ञानी भगवान् महावीर ने केवलज्ञान के प्रकाश में जानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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