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________________ ७८४ सूत्रकृतांग सूत्र सरल और मोक्ष में स्थापित करने वाले समाधिरूप धर्म का निरूपण किया है। हे शिष्यो ! तुम उस धर्म को सूनो । अपने तप के प्रतिफल की आकांक्षा न करता हुआ, एवं जीवहिंसाजनक आरम्भ न करता हआ समाधिप्राप्त साधु शुद्ध संयम में प्रगति करे। व्याख्या सर्वज्ञ भगवान महावीर द्वारा कथित समाधिधर्म सुनो यह इस अध्ययन की प्रथम गाथा है। इसमें श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि को सम्बोधित करके कहते हैं-शिष्यो ! मतिमान् (समस्त पदार्थों का ज्ञान मति है, वह जिसमें विद्यमान हो, उसे मतिमान् कहते हैं) भगवान् महावीर ने केवलज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों का स्वरूप जानकर सरल सरस समाधिरूप धर्म का प्ररूपण किया है। यहाँ 'अणुवीय धम्म आघं' शब्द यह सूचित करते हैं कि भगवान् केवलज्ञान के द्वारा यह जानकर कि इस धर्म का अधिकारी कौन है ? यह किस देवगुरु या धर्म-दर्शन का अनुगामी है ? यह किस पदार्थ को ग्रहण कर सकता है ? किस भाषा का प्रयोग करने से अधिकाधिक श्रोताओं को लाभ हो सकेगा? इत्यादि बातों का अपनी केवलज्ञानरूपी मति से विचारकर उन्होंने धर्म का कथन किया है। जो कि सरल है-- कुटिल, टेढ़ामेढ़ा या चक्करदार नहीं है, और समाधिरूप-यानी सम्यक् प्रकार से आत्मा को मोक्ष या मोक्षमार्ग में स्थापित करने वाला है। अथवा भगवान् ने धर्म और उसकी समाधि--सम्यध्यान आदि का उपदेश दिया है। आप लोग भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट उस सरल धर्म या समाधि को मुझसे सुनें । धर्मसमाधि को कौन प्राप्त कर सकता है ? इसके सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं ---जो साधु अप्रतिज्ञ है यानी अपनी तप:साधना आदि का प्रतिफल नहीं चाहता है, भिक्षाजीवी है, विषयसुखों की प्राप्ति का निदान (नियाणा) नहीं करता है, अथवा प्राणियों का हिंसात्मक आरम्भ नहीं करता है, वही समाधिप्राप्त है। उसे अपने संयम की ओर ही कदम बढ़ाने चाहिए। ___ अनिदान के यहाँ पाँच अर्थ होते हैं---एक अर्थ तो अन्वयार्थ में दिया है, दूसरा अर्थ होता है-~-जो विषय-सुखों की प्राप्ति के निदान (नियाणा) से रहित है, अथवा जो साधु निदान यानी कर्म-बन्धन के कारणों (आस्रवों) से दूर है, अथवा जो संसार के कारण नहीं हैं, वे ज्ञानादि अनिदान हैं। अथवा जो दुःख का कारण है, वह निदान है, किसी प्राणी को दुःख उत्पन्न न करता हुआ-यानी अनिदान होकर साधु संयम में पराक्रम करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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