________________
७७८
सूत्रकृतांग सूत्र भाव में दीप के समान वस्तु को प्रकाशित करने वाला श्र तज्ञानरूप भावदीप प्राप्त नहीं हो सकता है, अथवा समुद्र आदि में प्राणियों को विश्राम देने वाले द्वीप के समान संसार-समुद्र में प्राणियों को विश्राम देने वाला सर्वज्ञोक्त चारित्ररूप भावद्वीप नहीं मिल सकता है, यह जानकर जो पुरुष प्रव्रज्या धारण करके उत्तरोत्तर ज्ञानादि गुणों की वृद्धि करते हैं, वे पुरुष (और उपलक्षण से नारी भी) मुमुक्षुओं के आश्रयस्वरूप महातिमहान् हो जाते हैं। अथवा हितैषी पौरुषवान नर-नारी जिसका ग्रहण करते हैं, वह मोक्ष या रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है-पुरुषादान, वह जिसमें हो, वह पुरुषादानीय कहलाता है। जो व्यक्ति ऐसे हैं, वे ही अष्टविध कर्मों का विशेष रूप से नाश करने वाले वीर हैं, वे ही बाह्य-आभ्यन्तर बन्धनों से मुक्त हैं, वे पुरुष असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते अथवा जिंदगी की परवाह नहीं करते।
मूल पाठ अगिद्धे सद्दफासेसु, आरंभेसु अणिस्सिए । सव्वं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु ॥३५॥
संस्कृत छाया अगद्धः शब्द स्पर्शेष्वारम्भेष्वनिश्रितः । सर्वं तत् समयातीतं, यदेतल्लपितं बहु ॥३५।।
अन्वयार्थ (सद्दफासेसु अगिद्ध) साधु मनोहर शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न हो, (आरंभेसु अणिस्सिए) पापयुक्त जो भी आरम्भजनक प्रवृत्ति हो, उसमें जुड़ा हुआ न रहे। (जमेत लवियं बहु) इस अध्ययन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक जो बहुत-सी बातें कही गई हैं, (सव्वं तं समयातीतं) वे सब सिद्धान्त (जिनागम) से विरुद्ध होने के कारण निषिद्ध की गई हैं।
भावार्थ साधु मनोहर शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न हो, सावध या हिंसाजनक आरम्भों से दूर रहे। इस अध्ययन के आदि से लेकर यहाँ तक जो बातें निषिद्ध रूप से बताई गई हैं, वे सब जैन सिद्धान्त (आगम) विरुद्ध होने से निषिद्ध की गई हैं, उनका आचरण न करे, मगर जो अविरुद्ध हैं, वे निषिद्ध नहीं हैं, उनका आचरण करे।
व्याख्या निषिद्ध बातें अनाचरणीय हैं
इस गाथा में दो बातें निषिद्ध बताकर बाद में यह बता दिया गया है कि जो बहुत-सी बातें इस अध्ययन में निषेधरूप से बताई हैं, उन्हें अनाचरणीय समझना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org