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________________ धर्म : नवम अध्ययन ওও चाहिए। वे साधु के चारित्रधर्म के विरुद्ध हैं, क्योंकि जैनागमों में उनका आचरण करना निषिद्ध बताया गया है । इस गाथा में सर्वप्रथम शब्दादि पाँचों विषयों में आसक्ति एवं सावद्य अनुष्ठानों में प्रवृत्ति का निषेध किया गया है । यहाँ मूल में 'सद्दफासेसु' शब्द है, शब्द आदि में है, और स्पर्श अन्त में है, इसलिए दोनों के ग्रहण से बीच के रूप-रस-गन्ध आदि विषयों का भी यहाँ ग्रहण जान लेना चाहिए। इस अध्ययन में आद्योपान्त जो बातें, जिनागमविरुद्ध होने से निषिद्ध बताई हैं, उनका आचरण न करना ही धर्म है, तथा जिनका विधान किया है, वे लोकोत्तर उत्तम धर्म हैं, उनका आचरण करना चाहिए । मूल पाठ अइमाणं च मायं च, तं परिण्णाय पंडिए । गारवाणि य सव्वाणि, णिव्वाणं संधए मुणी ॥३६॥ त्ति बेमि ॥ संस्कृत छाया अतिमानञ्च मायां च, तत्परिज्ञाय पण्डित: । गौरवाणि च सर्वाणि, निर्वाणं सन्धयेन्मुनिः ।।३६।। इति ब्रवीमि ।। अन्वयार्थ (पंडिए मुणी) पण्डित मुनि (अइमाणं च मायं च) अत्यन्त मान और माया, (गारवाणि य सव्वाणि) तथा सब प्रकार के गौरवों (गर्व पैदा करने वाले विषयभोगों) को (परिण्णाय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागकर (निव्वाणं संधए) समस्त कर्मक्षयरूप निर्वाण-मोक्ष से या मोक्ष की साधना से अपने आपको जोड़े, अथवा मोक्ष की इच्छा करे । भावार्थ विद्वान् मुनि अत्यन्त मान, माया और समस्त प्रकार के गर्वोत्पादक विषय-भोगों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागकर मोक्ष की इच्छा करे। व्याख्या समस्त विकारों को त्यागकर मोक्ष में ही लौ लगाए इस गाथा में इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने कुछ त्याज्य बातों के त्याग का विधान करके अन्त में निर्वाण में अपने मन-वचन-काया को जोड़ने की, निर्वाण की ही इच्छा करने की प्रेरणा दी है--निव्वाणं संधए मुणी।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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