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अन्वयार्थ
( हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज) लाठी आदि से पीटे जाने पर साधु क्रोध न करे, ( वुच्चमाणो न संजले) अथवा किसी के द्वारा अपशब्द या गाली आदि दुर्वचन कहे जाने पर साधु मन में न जले । ( सुमणे अहियासिज्जा ) किन्तु प्रसन्न मन से इन्हें सहन करे ( ण य कोलाहलं करे ) किन्तु वह हल्ला-गुल्ला न मचाए ।
भावार्थ
साधु को यदि कोई लाठी या डण्डे आदि से मारे - पीटे तो वह कुपित न हो, यदि कोई अपशब्द या गाली आदि दुर्वचन कहे तो मन में जले - कुढ़े नहीं, अपितु प्रसन्नचित्त से सबको सहन करे । किसी प्रकार का हल्ला न मचाए, न विपरीत वचन बोले ।
व्याख्या
सूत्रकृतांग सूत्र
साधु आपे से बाहर न हो
इस गाथा में यह बताया गया है कि मारपीट, गाली, अपशब्द आदि कोपोत्तेजक प्रसंगों पर साधु क्या करे ? किस धर्म पर स्थिर रहे ? साधु कहीं किसी अपरिचित गांव या नगर में जाता है, वहाँ साधुचर्या से अनभिज्ञ, मूढ़, गँवार एवं असंस्कृत लोग उस पर ढेला मारते हैं, कई साधु को चोर या खुफिया समझकर उस पर लाठी या डण्डे से प्रहार करते हैं, कई नादान लोग उसे गाली देकर या अपशब्द कहकर छेड़ते हैं, कई उसे कैद कर लेते हैं, रस्सी से बाँध देते हैं, ये और इस प्रकार के अन्य प्रसंग आने पर सामान्य व्यक्ति के मन में आवेश आ जाता है, वह क्रुद्ध होकर उन लोगों का सामना करने को तैयार हो जाता है, गाली के बदले में गाली या अपशब्द कहने को उतारू हो जाता है, या अन्य प्रकार का हिंसक प्रतिकार करता है, किन्तु साधु क्या करे ? साधु का धर्म ऐसे समय में क्या है ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं --- 'सुमणे अहियासिज्जा ण य कोलाहलं करे' साधु उस परीषह ( आक्रोशपरीषह) को निर्जरा का कारण समझकर हँसते-हँसते उसे सहन करे । न तो वह उन मारपीट करने वालों पर कुपित हो, न अपशब्द कहने वालों पर मन में कुढे - जले, बल्कि उन्हें अज्ञानी समझकर उन पर तरस खाए; किन्तु दौड़ो-दौड़ो, मुझे बचाओ, इस प्रकार से हल्ला मचाकर लोगों की भीड़ इकट्ठी न करे, न पुलिस थाने आदि में उक्त व्यक्ति की रिपोर्ट लिखाकर दण्ड दिलाए । क्षमा और सहिष्णुता ही साधु का परमधर्म है ।
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मूल पाठ
लद्ध कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ||३२||
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