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________________ धर्म : नवम अध्ययन ७७३ अन्वयार्थ (उरालेसु) मनोहर शब्दादि विषयों में साधु (अणुस्सुओ) उत्कण्ठित न हो, (जयमाणो परिव्वए) यत्नपूर्वक अपने संयम में प्रगति करे। (चरियाए अपमत्तो) भिक्षाचर्या आदि में प्रमाद न करे, (पुट्ठो तत्थऽहियासए) एवं परीषहों और उपसर्गों के उपस्थित होने पर समभाव से सहन करे । भावार्थ साधु मनोहर शब्दादि विषयों में किसी प्रकार की उत्सुकता न रखे, अगर शब्दादि विषय कदाचित अनायास ही सामने आ जाएँ तो यतनापूर्वक आगे बढ़ जाए, या संयम में प्रगति करे, भिक्षाचर्या या अपनी साधूचर्या में प्रमाद न करे, परीषहों या उपसर्गों के आने पर उन्हें समभाव से सहे। व्याख्या अप्रमादयुक्त साधुचर्या इस गाथा में साधु की अप्रमादयुक्त चर्या का निरूपण है। साधु जब कहीं भी विहार, भिक्षा आदि के लिए गमनागमन करेगा, तो रास्ते में शब्दादि मनोज्ञ विषय आ सकते हैं । उस समय साधु उन उदार यानी मन को हरण करने वाले मनोज्ञ शब्दादि विषयों में आसक्त न हो, उनके सेवन करने के लिए बिलकुल उत्सुक न हो, बल्कि ऐसे मौके पर उसे उदासीनभाव से यतनापूर्वक वहाँ से आगे बढ़ जाना चाहिए। उक्त शब्दादि विषयों का सेवन करने के लिए वहाँ साधु खड़ा न रहे । किन्तु अपनी इन्द्रियों एवं मन पर संयम रखकर वहाँ से चल देना चाहिए। यह सोचकर कि बाहर जाऊँगा तो शब्दादि विषयों का प्रसंग आएगा, इसलिए अपने उपाश्रय या धर्मस्थान में ही बैठा रहूँ, यहीं सब कुछ चर्या कर लूँ, यह विचार भी ठीक नहीं है। शास्त्रकार कहते हैं -- 'चरियाए अप्पमत्तो'- साधु सभी चर्याएँ करे, किसी भी चर्या में प्रमाद न करे। किसी भी चर्या के लिए जाए-आए उस समय सावधानी अवश्य रखे । परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित होने पर साधु दीन न बने, अपितु कर्मनिर्जरा होती हुई जानकर उन्हें समभावपूर्वक बहादुरी के साथ सहन करे । मूल पाठ हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज, वुच्चमाणो न संजले । सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे ॥३१।। संस्कृत छाया हन्यमानो न कुप्येत् उच्यमानो न संज्वलेत् ।। सुमना अधिषहेत्, न च कोलाहलं कुर्यात् ॥३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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