SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 817
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७७२ व्याख्या साधुजीवन की कुछ मर्यादाएँ इस गाथा में साधुजीवन की कुछ मर्यादाओं का उल्लेख किया गया है, जिनके विषय में सावधानी न रखी जाय तो साधु अपने संयम से गिर सकता है । वे मर्यादाएँ ये हैं - ( १ ) बिना कारण गृहस्थ के घर में न बैठना, (२) ग्रामीण बालकों के साथ या बालकों के से खेल न खेलना, (३) अतिमात्रा में हँसना या हँसीमजाक न करना | गृहस्थ के घर में बिना कारण बैठने से लोगों को उसके चारित्र के विषय में शंका हो सकती है अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय के या साधु-द्व ेषी व्यक्ति का घर हो तो वहाँ बैठने से वह साधु पर झूठा इलजाम भी लगा सकता है । दशवैकालिक सूत्र में तीन कारणों से गृहस्थ के घर में बैठना कल्पनीय बताया है - व्याधि से ग्रस्त हो, अचानक चक्कर वगैरह आ जाय या कोई उपद्रव खड़ा हो जाय, अथवा वृद्धता हो । अथवा कोई साधु उपशमलब्धि वाला हो, उसका साथी साधु अच्छा हो, गुरु ने उसे आज्ञा दी हो, और किसी को धर्मोपदेश देना आवश्यक हो तो उस साधु को गृहस्थ के घर में बैठने में कोई दोष नहीं है । ग्राम में बालक-बालिकाओं की क्रीड़ा को ग्रामकुमारिका कहते हैं । इस खेल में हँसी-मजाक करना, हाथ का स्पर्श करना, आलिंगन आदि करना होता है, यह कामोत्पादक है, इसलिए साधु इस खेल को न देखे, न खेले । आजकल कई लड़के गाँवों में गुल्ली-डंडा या गेंद आदि से खेलते हैं, वह भी अयत्ना होने से कर्मबन्धन का कारण है | साधु अपनी मर्यादा छोड़कर न हँसे क्योंकि हँसने में कभी-कभी लड़ाईझगड़ा हो जाता है, इसलिए हास्य को कर्मबन्धन का कारण है hts च वज्ज' साधु हँसी और क्रीड़ा का त्याग करे | आगम में बताया हैजीवे णं भंते ! हसमाणे उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा । । कहा भी है - 'हासं 'भगवन् ! हँसता हुआ या उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध करता है ? गौतम ! वह जीव सात या आठ कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ।' अतः साधु-जीवन में इन तीनों मर्यादाओं का पालन आवश्यक है । Jain Education International सूत्रकृतांग सूत्र मूल पाठ अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियास ||३०|| संस्कृत छाया अनुत्सुकः उदारेषु, यतमानः परिव्रजेत् । चर्यायामप्रमत्तः, स्पृष्टस्तत्राधिषहेत् ॥३०॥ . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy