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धर्म : नवम अध्ययन
संस्कृत छाया
लब्धान् कामान् न प्रार्थयेत्, विवेक एवमाख्यातः । आर्याणि शिक्षेत, बुद्धानामन्तिके सदा
अन्वयार्थ
||३२||
( लद्ध े कामे ण पत्थेज्जा ) साधु प्राप्त कामभोगों की इच्छा न करे, ( एवं विवेगे आहिए) ऐसा करने पर विवेक प्रकट हो गया, ऐसा कहा जाता है । ( बुद्धाण अंत सया) ऐसा करता हुआ साधु ज्ञानियों या आचार्यों के पास सदा रहकर आर्यकर्म सीखे |
भावार्थ
साधु मिले हुए कामभोगों की भी इच्छा न करे। ऐसा करने पर साधु को निर्मल विवेक उत्पन्न हो गया है, ऐसा कहा जाता है । साधु उक्त रीति से रहता हुआ सदा आचार्य के सान्निध्य में रहकर ज्ञानदर्शन- चारित्ररूप आर्यधर्म की शिक्षा ग्रहण करता रहे ।
व्याख्या
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साधना में विवेक ही धर्म का मूल है इस गाथा में साधु के दीर्घकालीन साधना के फलस्वरूप कई कामभोगों की अनायास उपलब्धि हो जाती है, कई सिद्धियाँ या लब्धियाँ उसे अनायास प्राप्त हो जाती हैं, उस समय अधकचरा साधक उन प्राप्त लब्धियों या सिद्धियों या सुखसुविधाओं का प्रयोग या उपयोग करने को मचलने लगता है। शास्त्रकार कहते हैं कि साधु उन प्राप्त कामभोगस्वरूप उपलब्धियों के उपभोग या प्रयोग की जरा भी इच्छा न करे, उनकी सूक्ष्मवासना भी मन में न रखे। तभी उसमें विवेक स्थिर हो गया, ऐसा समझा जाएगा। अगर लब्धियाँ या सिद्धियाँ प्राप्त हो भी जाएँ तो वह उनकी शोहरत किये बिना चुपचाप अपने गुरुवर या आचार्य के चरणों में रहकर रत्नत्रय की — आर्यधर्म की शिक्षा ग्रहण करता रहे । निष्कर्ष यह है कि शक्तिमान साधक गुरुचरणों में रहकर प्राप्त शक्तियों को पचाए, उन्हें ज्ञान दर्शन - चारित्ररूप आर्यधर्म की आराधना में लगाए । यही सच्चा विवेक है ।
मूल पाठ
सुस्सूसमाणो उवासेज्जा, सुप्पन्नं सुतवम्सियं ।
वीरा जे अत्तपन्नेसी, धितिमंता जिइंदिया
संस्कृत छाया
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शुश्रूषमाण उपासीत, सुप्रज्ञ सुतपस्विनम् वीरा ये आप्तप्रज्ञ षिणः धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः ॥ ३३॥
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॥३३॥
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