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धर्म : नवम अध्ययन
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ये
और कुछ सच्ची होती है । जैसे किसी ने अनुमान से ही कह दिया- ---- इस गाँव में बीस लड़के उत्पन्न हुए हैं या मरे हैं । यहाँ बीस से कम या ज्यादा बालकों का जन्म या मरण भी सम्भव है, इसलिए संख्या में फर्क होने से यह वचन सत्य और मिथ्या दोनों से मिश्रित है । ऐसा वचन साधु को नहीं बोलना चाहिए । तथा जिस वचन को कहने से जीव अगले जन्म में दुःख का भाजन होता है, तथा उसे बाद में पश्चात्ताप करना पड़ता है कि "हाय ! मैंने ऐसी बात क्यों कह दी ?", ऐसा वचन भी साधु न बोले । जिस बात को लोग यत्नपूर्वक छिपाते हैं जैसे मकार चकारादिपूर्वक गाली देना, गुप्तांगों का नाम लेकर बोलना, या किसी की गुप्त बात प्रकट करना, आदि सत्य होते हुए भी बोलना साधु के लिए निषिद्ध है, ऐसी निर्ग्रन्थ भगवान की आज्ञा है । पूर्वोक्त चारों प्रकार की भाषाओं में असत्या, सत्यामृषा एवं असत्यामृषा तीन तो साधु के लिए वर्जनीय हैं ही, लेकिन पहली भाषा सर्वथा सत्य होते हुए भी जहाँ यह प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करती हो, मोह पैदा करती हो, या दूसरों के लिए अप्रिय हो, या अपने लिए दीनतासूचक या चाटुकारीयुक्त हो ऐसी भाषा साधु के लिए सर्वथा वर्जनीय है । इसी बात को शास्त्रकार २७वीं गाथा में बताते हैं 'होलावायं तं ण बतए ।' यदि साधु किसी को निष्ठुर या तुच्छ ( नीच) शब्द से सम्बोधन करता है - जैसे हे गोले ! अरे बदमाश ! अय दुष्ट ! अरे पापी ! अरे चोर ! यह होलावाद है, ऐसा वचन सत्य होते हुए साधु न बोले । इसी प्रकार अरे मित्र ! हे सखी! इत्यादि वचन सखीवाद है, यह सत्य होते हुए भी मोहोत्पादक होने से साधु के लिए वर्जनीय है । तथा किसी की चापलूसी करने के लिए उसके गोत्र का नाम लेकर सम्बोधन करना ( गोत्रवाद) भी दीनता या चाटुकारिता का सूचक है । जैसे -- "अजी काश्यपगोत्रीजी ! आप तो बहुत ऊँचे खानदान के हैं ।' इत्यादि वचन भी साधु न बोले । किसी का अपमान करने हेतु 'रे' 'तू' इत्यादि तुच्छ शब्दों से बोला जाने वाला वचन भी साधु के लिए त्याज्य है । जो वाक्य सुनने में बुरा (अमनोज्ञ) लगता है, उसे भी साधु न बोले, क्योंकि ऐसा अमनोज्ञ शब्द दूसरों के दिल में चुभ जाता है और उससे भयंकर वैर बँध जाता है, कलह खड़ा हो जाता है, भयंकर कर्मबन्धन होते हैं । इसी प्रकार सत्य होते हुए भी जो वचन हिंसाजनक है, उसे साधु न बोले, जैसे- इसका सिर काट डालो, इसे जूतों पीटो, यह चोर है, इसे कैद में डाल दो, फाँसी पर चढ़ा दो, ये पेड़ काट डालो, यहाँ आग लगाकर जंगल को साफ कर दो । आदि !
निष्कर्ष यह है कि साधु को फूंक-फूंककर वाणी का प्रयोग करना चाहिए | अन्यथा, वह अपने साधुधर्म से च्युत हो जाएगा। साधु के लिए मधुर, सत्य, हितकर, प्रिय एवं परिमित वाणी ही उपयुक्त है ।
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