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________________ ७६८ सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्या साधु कैसी भाषा बोले, कैसी नहीं ? साधु के पास वाणी एक अमोघ साधन है, दूसरों को यथार्थ मार्गदर्शन एवं उपदेश देने के लिए, सच्ची सलाह देने के लिए तथा धर्मपथ पर चढ़ाने के लिए; किन्तु अगर साधु उसका दुरुपयोग करता है, उस वाणी से सावध वचन, निष्ठर एवं तुच्छ एवं अपशब्द बोलता है, दूसरों की खुशामद करने वाली या दीनता प्रगट करने वाली वाणी बोलता है, या सत्य के साथ झूठ मिलाकर बोलता है, तो वह अपने धर्म से च्युत होता है, पापकर्म का बन्धन करता है, जिसके कटु फल उसे भोगने पड़ते हैं। इसी बात को २५, २६ और २७वीं गाथा में शास्त्रकार स्पष्ट करते हैं। वास्तव में जो साधु भाषासमिति का ध्यान रखकर बोलता है, वह चाहे धर्मोपदेश दे रहा हो, धर्मपथ पर चलने की किसी को प्रेरणा दे रहा हो, धर्म में स्थिर करने के लिए मार्गदर्शन दे रहा हो, वह भाषण न करने वाले (मौनी) के सरीखा ही है। जैसे कि कहा है ---- वयणविहत्तीकुसलोवओगयं बहुविहं नियाणंतो । __ दिवसंपि भासमाणो साहू वयगुत्तयं पत्तो ।। जो साधु वचन-विभाग को जानने में निपुण है, जो वाणी के बहुत-से प्रकारों को जानता है, वह दिनभर बोलता हुआ भी वचन गुप्ति से युक्त ही है । अथवा 'भासमाणो न भासेज्जा' का अर्थ यह भी होता है कि दीक्षा में बड़ा (रत्नाधिक) साधु किसी से बोल रहा हो, उस समय अपना पांडित्य प्रदर्शन करने के लिए बीच में न बोले, क्योंकि इससे बड़ों की आशातना होती है और अपना अभिमान प्रकट होता है । तथा तथ्य या अतथ्य जो वचन दूसरों के दिल को चोट पहुँचाने वाला, मर्मान्तक हो, उसे साधु न बोले अथवा मामक 'यह मेरा है', ऐसा सोचकर किसी के प्रति पक्षपात से युक्त वचन न बोले । __ मातिट्ठाणं विवज्जेज्जा- इसका अर्थ तो यह होता है कि माया (कपट) प्रधान वचन न बोले, दूसरा अर्थ यह भी होता है--दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए साधु भायाचारी न बने, दम्भी न हो, वह बोलने में या व्यवहार में कपट न करे । इसके अतिरिक्त साधु को चाहिए कि बोलने से पहले उस सम्बन्ध में सोच ले कि 'यह वचन अपने या दूसरे या दोनों के लिए दुःखदायक तो नहीं है ?' उसके पश्चात् ही योग्य वचन बोले । कहा भी है--'पुत्विं बुद्धीए पेहिता, पच्छा वक्कमुदाहरे' (अर्थात्---पहले बुद्धि से सोचकर फिर वाक्य बोले)। शास्त्र में चार प्रकार की भाषा बताई है—सत्या, असत्या, सत्यामृषा और असत्यामृषा । इन चारों में से तीसरी भाषा--सत्यामृषा है। यह भाषा कुछ झूठी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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