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________________ धर्म : नवम अध्ययन ७६७ से पूर्ण भाषा भी न बोले, (अणुचितिथ वियागरे) किन्तु पहले उस सम्बन्ध में चिन्तन-विचार करके फिर बोले ॥२५॥ (तथिमा तइया भासा) उन चार प्रकार की भाषाओं में जो तीसरी भाषा (सत्यामृषा) है, उसे साधु न बोले तथा (जं वदित्ताऽणुतप्पती) जिसे बोलने के बाद पश्चात्ताप करना पड़े, वह वचन भी साधु न बोले । (जं छन्नं तं न वत्तव्वं) जिस बात को सब लोग छिपाते हैं, उसे भी साधु न क,हे (एसा आणा नियंट्ठिया) यही निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा है ॥२६॥ (होलावायं) निष्ठर तथा नीच सम्बोधन से किसी को पुकार कर (सहीवायं) हे सखे या हे सखी ! इस प्रकार से किसी को सम्बोधित करके, (गोयावायं च) हे काश्यपंगोविन् हे वशिष्ठगोत्री ! इत्यादि रूप से गोत्र के नाम से सम्बोधित करके (नो वदे) साधु (इस प्रकार से) न बोले । (तुमं तुमंति) तथा अपने से बड़े या समान उम्र वाले से 'तू' 'रे' आदि तुच्छ शब्दों से बोलना तथा (अमणुन्न) अप्रिय लगने वाले वचनों से कहना, (सव्वसो तं ण वत्तए) इत्यादि सब बातें या व्यवहार साधु न करे ॥२७।। भावार्थ जो साधु भाषासमिति से युक्त है, वह धर्मोपदेश या भाषण करता हुआ भी भाषण न करने वाले (मौनी) के समान है। साधु ऐसा मर्मस्पर्शी वाक्य न बोले, जिससे किसी को दुःख हो, तथा वह कपटयुक्त भाषा का त्याग करे, जो कुछ भी बोले, पहले उस सम्बन्ध में सोच-विचारकर फिर बोले ॥२५॥ भाषाएँ चार प्रकार की हैं, उनमें सत्य में झूठ मिली हुई भाषा तीसरी है, उसे साध न बोले। तथा जिस वचन के कहने से साधु को बाद में पश्चात्ताप करना पड़े, ऐसा वचन भी साधु न कहे। एवं जिस बात को सब लोग छिपाते हैं, उसे भी साधु न कहे। यही निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर की आज्ञा है ॥२६॥ साधु निष्ठुर तथा नीच सम्बोधनों से किसी को न पुकारे, तथा किसी को हे सखे ! या हे सखी ! इत्यादि कहकर सम्बोधित न करे एवं ऐ वशिष्ठ गोत्रीय ! अरे काश्यप गोत्र वाले ! इत्यादि गोत्र का नाम लेकर न बुलाए, तथा अपने से बड़े या समवयस्क को 'रे', 'तू' इत्यादि तुच्छ शब्दों से सम्बोधित न करे एवं जो वचन दूसरों को अप्रिय (बुरा) लगे, उसे साधु सर्वथा न बोले अथवा बुरा व्यवहार सर्वथा न करे ।।२७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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