________________
७७०
सूत्रकृताग सूत्र
मूल पाठ अकुसीले सया भिक्ख, णेव संसग्गिय भए । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज्ज ते विऊ ॥२८॥
संस्कृत छाया अकुशील: सदा भिक्ष व संसर्गितां भजेत् । सुखरूपास्तत्रोपसर्गाः प्रतिबुध्येत तद् विद्वान् ॥२८।।
अन्वयार्थ (भिक्खू सया अकुसीले) साधु स्वयं कुशील न बने, किन्तु सदा अकुशील बन कर रहे । (णेव संसग्गिय भए) तथा कुशीलजनों या दुराचारियों का संग या संसर्ग भी न करे, क्योंकि (सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा) कुशीलों की संगति में भी सुखरूप (अनुकल) उपसर्ग रहता है, (विऊ ते बुज्झज्ज) अतः विद्वान् साधक उसे समझे।
भावार्थ साध स्वयं कूशील न बने और न ही कूशीलों के साथ संसर्ग रखे क्योंकि कुशीलों की संगति में भी सुखरूप (सातागौरव-रूप) उपसर्ग उत्पन्न हो जाते हैं । मेधावी साधक इसे भलीभाँति समझे।
व्याख्या दृढ़धर्मी साधु के लिए कुशील संसर्ग निषिद्ध है
इस गाथा में संयमधर्म में दृढ़ साधु के लिए कुशीलसंसर्ग संयम-विघातक होने से त्याज्य बताया गया है । जिसका शील अर्थात् आचार कुत्सित (खराब) हो, वह कुशील कहलाता है। नियुक्तिकार के मन्तव्यानुसार पार्श्वस्थ (पाशस्थ), अवसन्न, अपच्छन्द, ये सब शिथिलाचारी या कुत्सित-आचारी कुशील में परिगणित हैं। ऐसा कुशील न तो भिक्षाशील साधु स्वयं बने और न ही कुशीलों के साथ संगति करे ।।
प्रश्न होता है कि कुशीलों के साथ संसर्ग रखने से दृढ़धर्मी साधु को क्या हानि है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-'सुहरूवा तत्थुवसग्गा ।' अर्थात् कुशीलों की संगति से संयम को नष्ट करने वाले, सुखभोगेच्छारूप उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । ऐसे उपसर्ग पहले तो बहुत सुहावने और सुखद लगते हैं, किन्तु धीरे-धीरे वे संयम की जड़ों को खोखला कर देते हैं, मीठे जहर की तरह वे उपसर्ग साधु को पराश्रित, इन्द्रियों का गुलाम और असंयमनिष्ठ बना डालते हैं। इसलिए शास्त्रकार ने कहा है -- 'पडिबुज्झज्ज ते विऊ' अर्थात् --विद्वान् साधु इनसे सावधान रहे, इन्हें अच्छी तरह समझ ले। क्योंकि कुशील पुरुषों की संगति करने से वे कहते हैं-- "अजी ! शरीर को मजबूत बनाओ। इसे बहुत ही साफ-सुथरा रखो। आकर्षक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org