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सूत्रकृतांग सूत्र
प्रकार के (पूर्वोक्त) परिग्रह को स्वयं ग्रहण करके, दूसरों से ग्रहण करवा कर या ग्रहण करने वाले को अनुमति, प्रोत्साहन, प्रेरणा या अनुमोदन प्रदान करके जीव दुःख से मुक्त नहीं होता। क्योंकि प्रथम तो अप्राप्त परिग्रह को प्राप्त करने की लालसा होती है, उसके लिये काफी प्रबन्ध करना पड़ता है, वह भी क्लेशकारक है, दूसरों का अधिकाधिक परिग्रह देखकर मन में लालसा जागती है, स्वयं परिग्रह प्राप्त करने की । उसके लिए मन में विषाद होता है, दूसरों की खुशामद करनी पड़ती है, फिर कई प्रकार की झिड़कियाँ, अपमान, गाली बगैरह सहनी पड़ती हैं, वह भी दुःखकारक है, इसके पश्चात प्राप्त परिग्रह की रक्षा करने में भी कष्ट होता है। परिग्रह के उपभोग से भी तृप्ति नहीं होती, अतृप्ति और असंतोष का मानसिक दुःख होता रहता है । फिर प्राप्त परिग्रह को कोई नष्ट करता है, चुरा लेता है या अपने कब्जे में कर लेता है, तो उसके कारण दुःख, क्लेश, अशान्ति आदि होती है इसलिए परिग्रही को दुःख से छुटकारा नहीं होता।' कहा भी है --- ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नय. । यशः सुखपिपासितैर यमसावनर्थोत्तरेः परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते ॥
____ ----'यह मेरा है' 'मैं इसका स्वामी हूँ', इस प्रकार मेरा और मैं इस अभिमान (मान्यता, परिग्रह) का दाहज्वर जब तक रहता है, तब तक समझो मृत्यु का मुख उसके समक्ष खुला है । तब तक उसके जीवन में ममता के ज्वर के कारण शान्ति की आशा नहीं है । परिग्रह इतना दुखद होते हुए भी यश और सुख के लिप्सु एवं परिणाम में अनर्थ के शिकार बनने वाले मृदु जीव इस नीच परिग्रह को अत्यन्त कष्ट सहकर भी ग्रहण करते हैं ।
परिग्रही व्यक्ति को अपने धन की रक्षा की चिन्ता रात-दिन लगी रहती है, चोर, डाकू, आग, पानी आदि का भय तथा सरकार के कोप आदि आपत्तियाँ भी उस पर आती हैं । इसी कारण उसे रात को सुख से नींद भी नहीं आती। वह अपने पुत्र, स्त्री, भाई, स्वजन, दुष्ट, चोर, राजा, मित्र, रिश्तेदार तथा शत्रु आदि से सदा आशंकित रहता है। दूसरे के पास अधिक धन देखकर परिग्रही ईर्ष्या से जलता रहता है, वह दूसरों को अपने बराबर न देखने या नीचा गिराने की चिन्ता करता रहता है । अप्राप्त पदार्थ से भी उसे तभी सुख होता है, जब वैसा पदार्थ दूसरों के पास न हो। परिग्रही व्यक्ति के मन में स्वार्थ भावना के कारण निष्ठुरता आ जाती है, वह अपने दुःख को अधिक महत्व देता है, दूसरों को दुखी देखकर
१. अर्थानामर्जने दुःखं, अजितानां च रक्षणे ।
आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थः दुःखभाजनम् ॥
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