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समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक
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उनके दुःख की किंचित् भी परवाह नहीं करता । जहाँ परिग्रह है, वहाँ प्रायः द्वष, द्रोह, अभिमान, ईर्ष्या, स्वार्थ, कपट आदि दुर्गुण भी स्वत: आ जाते हैं। महापरिग्रही व्यक्ति प्रायः धर्माराधन, परमात्म-भक्ति, साधु-सन्तों की सेवा आदि से विमुख ही रहता है । परिग्रह हिंसा आदि अनेक पापों का मूल है।
___ यद्यपि केवल परिग्रह ही अनर्थ का मूल नहीं है, हिंसा, असत्य आदि अन्य अनेक पाप भी अनर्थ के मूल हैं; फिर भी शास्त्रकार ने सर्वप्रथम परिग्रह को ही क्यों ग्रहण किया ? इसका समाधान यह है कि परिग्रह ही हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, कषाय आदि का मूल कारण होने से समस्त अनर्थ कारणों में मुख्य है। हिंसा आदि अन्य अनेक अनर्थ परिग्रहमूलक हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है कि परिग्रह के लिये लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, मिलावट करते हैं, तौल-नाप में गड़बड़ी करते हैं, लूट, चोरी, डकैती करते हैं, पर-स्त्री-हरण या परदारगमन करते हैं, अपने माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु, सबके साथ छल-कपट करते हैं, लड़ाई करते हैं, मार डालते हैं, बड़े-बड़े युद्ध भूमि और सम्पत्ति के लिए ही होते हैं । लाखों मनुष्यों को एकमात्र परिग्रह के लिये व्यक्ति मौत के घाट उतार देता है । यहाँ तक कि सभी पाप परिग्रह से उत्पन्न होते हैं। परिग्रह के लिये व्यक्ति अपने शरीर को स्वजन को भी कष्ट में डालता है, परिवार, समाज एवं राष्ट्र से द्रोह करता है, कलह करता है, दूसरे का अहित करता है, बुरा चाहता है, दूसरे का अपमान करता है । शास्त्रकारों के आशय के अतिरिक्त, अनुभव भी स्पष्ट है कि संसार में जितने भी पाप हैं वे सब परिग्रह के ही कारण हैं, परिग्रह के लिये ही किये जाते हैं । एक अनुभवी ने ठीक ही कहा है-----
द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधिर्, व्याक्षेपस्य सुहम्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः । दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजः,
प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ।।
परिग्रह द्वष का घर है, धैर्य का नाशक है, क्षमा का शत्रु है, चित्तविक्षेप का साथी है, मद का भवन है, ध्यान का कष्टदायी रिपु है, दुःख का जन्मदाता है, सुख का विनाशक है, पाप का खास निवास स्थान है । परिग्रह दुष्ट ग्रह के समान बुद्धिमान पुरुष को भी क्लेश देता है और उसका नाश कर डालता है।
इन सब दृष्टियों से परिग्रह दुःख का स्रोत है, दुःख (प्रतिकूलन वेदन) की प्राप्ति का कारण है । यह तो हुई प्रत्यक्ष दुःख की बात । परोक्ष रूप से भी परिग्रह (ममत्व) से ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मबन्धन तथा उनका असाता वेदनीय रूप उदय, दुःखरूप है। परिग्रही जीव परिग्रह से कर्भबन्धन के फलस्वरूप नरक,
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