SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय : प्रथम अध्ययन----प्रथम उद्देशक भण्डोपकरण, इन तीनों को परिग्रह बताया है, बशर्ते कि जब तक इनके प्रति ममत्वभाव का त्याग नहीं किया जाता और आभ्यन्तर परिग्रह, जिसका संकेत 'किसामवि एवं परिगिज्झ' शब्दों से शास्त्रकार ने किया है, और जिसका सम्बन्ध हृदय और मन से है, वह आभ्यन्तर परिग्रह भी मिथ्यात्व, क्रोध आदि चार कषाय, हास्यादि छह और तीन वेद (नौ नोकषाय) यों कुल मिलाकर १४ होते हैं। संसार में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह या तो जड़ है या चेतन है। जड़ और चेतन में विश्व के समस्त पदार्थ आ जाते हैं, और उन्हीं को लेकर बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर परिग्रह होता है। इसीलिए शास्त्रकार ने 'चित्तमंतमचित्त पि' ये दो शब्द सूत्ररूप में दे दिये, जिनके आश्रय से ममता, मूर्छा, आसक्ति, इच्छा, लालसा, तृष्णा आदि जल द्वारा परिग्र हरूपी वृक्ष का सिंचन होता है, परिग्रहतर वृद्धिंगत होता रहता है और उसके विविध कर्मबन्धन रूपी फल लगते हैं । परिग्रह रखना, रखाना तथा अनुमति देना अनर्थ का मूल कई बार मनुष्य भ्रान्तिवश यह सोच लेता है कि मैं स्वयं किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखु गा तो बन्धन से बच जाऊँगा, यों सोचकर वह अपने पुत्र, पौत्र, स्त्री या अन्य सम्बन्धी के पास रख देता है, उनको रखने के लिये दे देता है, तथाकथित परिग्रह उनके नाम से करके उस पर अपना स्वामित्व रखता है, अथवा दूसरे को परियह ग्रहण करा कर या सौंप कर उस परिग्रह से अपना भरण-पोषण करता है, अपने अनेकविध भोगोपभोग में उसका उपयोग करता-कराता है, अथवा रक्षा के लिये अपना परिग्रह किसी दूसरे को सौंप देता है, इस भ्रम से कि मैं परिग्रह से निष्पन्न कर्मबन्धन से छूट जाऊँगा, अथवा अपने से सम्बन्धित प्रियजनों को परिग्रह ग्रहण करने एवं संचित करने की अनुमति देता है, प्रेरणा और प्रोत्साहन देता है, ताकि उसे भी सुख-सुविधाएं या जीवनोपयोगी साधन-सामग्री सुखपूर्वक मिलती रहें अथवा उसकी सेवा-भक्ति होती रहे। परन्तु शास्त्रकार ने इन सबको परिग्रह ग्रहण करने की तरह ही परिग्रह का कारण मानकर दुःख का मूल माना है। इसी को अभिव्यक्त करने के लिये शास्त्रकार कहते हैं 'अन्नं वा अणुजाणाई' । वस्तुतः परिग्रह स्वयं रखना, स्वयं ममत्व या स्वामित्व की बुद्धि रखकर दूसरे के यहाँ रखना-रखाना अथवा दूसरे को परिग्रह रखने की अनुमति, प्रेरणा या प्रोत्साहन अपनी सुखलिप्सा से देना, ये सब परिग्रह ग्रहण की कोटि में आ जाते हैं। परिग्रह : दुःखरूप क्यों और कैसे ? 'एवं दुक्खा ण मुच्चई'---इस पंक्ति द्वारा शास्त्रकार स्वयं कहते हैं कि इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy