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सूत्रकृतांग सूत्र वस्त्र न ले, क्योंकि पहले या पीछे उसे कच्चे पानी से धोये जाने या चुराये जाने अथवा फट जाने की आशंका है। जिनकल्पी मुनि वस्त्ररहित होते ही हैं, उनके लिए सभी वस्त्र परवस्त्र हैं, इसलिए उन्हें कोई भक्तिवश या जबरन वस्त्र पहनाना चाहे तो वे कदापि न पहनें। निष्कर्ष यह है कि विवेकी साधु परपात्र और परवस्त्र का उपयोग संयमविराधक समझकर कदापि न करे ।
इसी प्रकार आसन्दी एक प्रकार का आसन विशेष है जिसे आजकल आरामकुर्सी या स्प्रिगदार लचीली कुर्सी कहते हैं । कई जगह उस पर गद्दा लगा होता है, अथवा उसे छोटा मांचा या खटिया भी कहते हैं । गृहस्थों के सोने का पलंग भी आरामदेह होता है। इन दोनों पर सोना-बैठना इसलिए वजित किया गया है कि ब्रह्मचारी साधु को कड़े आसन या शय्या पर सोना-बैठना चाहिए, जो आसन या शय्या के साधन लचीले हों, जिन पर बैठने से साधु को कामोत्तेजना पैदा होती हो, वे तथा जिनके छिद्रों में रहे हुए जीवों की विराधना होने की आशंका हो, ऐसे आसन तथा शयन के साधन पर साधु को न तो बैठना या लेटना चाहिए, न सोना चाहिए। इसी प्रकार गृहस्थ के घर में उसकी गृहिणी, पुत्रवध , पुत्रियाँ आदि रहती हैं, तथा दो घरों के बीच में जो गली होती है, उससे स्त्रियों, पुरुषों के आने-जाने का मार्ग रहता है, साधु को इन दोनों जगहों में बैठने से ब्रह्मचर्य में विराधना होने की आशंका है । फिर किसी गृहस्थ के घर के भीतर स्त्रियों के बीच में बैठना या गली में बैठना साधु के लिए शोभास्पद भी नहीं है। साधु के वहाँ बैठने से गृहस्थों को उस पर अब्रह्मचर्य की शंका भी हो सकती है। इसलिए ब्रह्मचर्यविराधक समझकर साधु इनका भी त्याग करे।
____ इसके बाद साधु के लिए त्याज्य अनाचरणीय बातें बताई गई हैं--संपुच्छणं सरणं वा । अर्थात् साधु अपनी मर्यादा में ही संयत भाषा में ही गृहस्थ से बोले, क्योंकि गृहस्थों से अतिपरिचय करेगा तो वह अपनी पुरानी आदत के अनुसार उनसे कुशल प्रश्न पूछ बैठेगा-यानी गृहस्थ के घर का समाचार पूछेगा-कौन, कहाँ, कैसे हैं ? इत्यादि प्रश्न पूछने से साधु का समय बहुत-सा फालतू गप्पों में चला जाएगा। इसलिए साधु को इस प्रकार के गपशप में व्यर्थ समय न खोना चाहिए अथवा संपुच्छगं का अर्थ अपने अंगों को पोंछना भी होता है, यह भी गृहस्थ के यहाँ बैठकर करना अच्छा नहीं होता। इसी प्रकार पूर्वक्रीड़ित कामभोगों का स्मरण करना अथवा अपने माता-पिता, भाई-बहन के लाड़-प्यार या वैर-विरोध का स्मरण करना भी साधु के लिए अहितकर है। वस्तुतत्त्व का ज्ञाता विद्वान मुनि इन बातों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग करे ।
इसी प्रकार यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दना या पूजा भी साधु के लिए मदवर्धक, अहंकार वृद्धि करने वाली एवं कर्मबन्धन की कारण हैं। इसलिए साधु इनको
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