________________
धर्म : नवम अध्ययन
को
मन से भी न चाहे और न लोगों को इनके लिए प्रेरणा दे, जहाँ तक हो सके 'प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा' (प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा है) समझकर पास भी न फटकने दे। किसी महायुद्ध में विजय प्राप्त करने से या किसी महान् या महत्त्वपूर्ण कठिन कार्य के करने से जगत् में वीर नाम से प्रसिद्धि होती है, उसे यश कहते हैं; बहुत दान देने से जो प्रसिद्धि होती है, उसे कीति कहते हैं; तथा उत्तमकुल, जाति में जन्म लेने, तप करने, शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन करने से जगत् में जो ख्याति होती है, उसे श्लोक कहते हैं; देवे द्र, नरेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव कोई शासक या धनपति नमस्कार करते हैं, उसे वन्दना कहते हैं; सत्कार के साथ वस्त्रादि दिया जाना पूजा है। इन सबको साधु त्याज्य समझे । साथ ही संसार के जितने भी कामभोग हैं, उन्हें भी रागद्वे पवर्द्धक समझकर विद्वान् साधु उन्हें तिलांजलि दे दे, ठुकरा दे।
जिस अन्नजल से साधु के संयम का निर्वाह न हो उलटे संयम बिगड़े, उसमें कामोत्तेजना बढ़े, नशा हो जाए, दिमाग घूमने लगे, बुद्धिभ्रष्ट हो जाए या क्रूरता बढ़े, ऐसा आहार-पानी साधु न तो स्वयं ग्रहण करे और न ही दूसरे साधुओं को या परतीर्थो साधु को भी दे। ऐसे अशुद्ध एवं विषाक्त दुष्पाच्य अन्नजल को संयमविघातक समझकर साधु उसका त्याग करे ।
___इन और ऐसी ही अनाचरणीय बातों को हिताहितविवेकी साधु संयमविघातक, कर्मबन्धकारक एवं संसारपरिभ्रमण के कारण समझकर छोड़ दे, यही साधु का आचारधर्म-चारित्रधर्म है।
मल पाठ एवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी । अणंतनाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं ।।२४॥
संस्कृत छाया एवमुदाहृतवान् निर्ग्रयो, महावीरो महामुनिः । अनन्तज्ञानदर्शी स, धर्म देशतवान् श्रु तम् ॥२४।।
अन्वयार्थ (निग्गंथे महामुणी) निर्ग्रन्थ महामुनि (अनंतनाणदंसी) अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी (महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर ने (एवमुदाहु) ऐसा कहा है । (धम्म सुतं देसितवं) उन्होंने धर्म (चारित्र) और श्रु त का उपदेश दिया है।
भावार्थ अनन्तज्ञान-दर्शनसम्पन्न बाह्य-आभ्यन्तरग्रन्थिरहित, महामुनि श्रमणशिरोमणि भगवान् महावीर ने ऐसा (पूर्वोक्त वचन) कहा है । उन्होंने इस चारित्रधर्म एवं श्रुतरूप धर्म का उपदेश दिया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org