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________________ धर्म : नवम अध्ययन ७६३ करने का निषेध किया गया है। आहार के ४२ दोष हैं, उनमें १६ उद्गम के, १६ उत्पादना के एवं १० एषणा के दोष हैं, उन्हें भलीभाँति जानकर सुविहित साधु उन्हें त्याज्य समझे । इसके पश्चात् १५वीं गाथा में भी शरीरमोहवश कतिपय अनाचरणीय बातों को छोड़ने का निर्देश है - जैसे शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए रसायन सेवन करना, नेत्र में शोभा के लिए अंजन लगाना, शब्दादि पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होना, जीवघातजनक कर्म करना, अयत्नापूर्वक ठण्डे जल से हाथपैर आदि धोना, शरीर में उवटन लगाना आदि । ये सब इसलिए त्याज्य हैं कि इनसे संयमवृद्धि में कोई सहारा नहीं लगता बल्कि ये सब संयम के घातक हैं । 1 कई बातें ऐसी हैं, जो साधुत्व की साधना में विघ्नकारक हैं, मोहकर्म की वृद्धि करने वाली हैं। जैसे असंयतों के साथ विवाह, सगाई, कामभोग आदि वासनावर्द्धक व्यर्थ का समय नष्ट करने वाली गप्पें मारना, असंयम के कार्यों की तारीफ करना, गृहस्थों के मतलब की ज्योतिष, हस्तरेखा आदि से सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर देना, शय्यातर - पिण्ड या निन्दनीय, दुराचारी या अनाचारी के यहाँ से आहार ग्रहण करना । सब बातें भी साधु के लिए त्याज्य हैं । इसके अतिरिक्त जुआ खेलना सीखना, धर्मविरुद्ध बातों की प्रेरणा देना, हाथापाई पर उतारू हो जाना, विवाद एवं कलह करना, ये सब निन्द्यकर्म साधु के लिए अनावरणीय हैं । जूते पहनना, छाता लगाना, शतरंज खेलना, पंखे से हवा करना, एक-दूसरे के करने योग्य क्रिया एक-दूसरा करे, हरियाली भूमि पर मल-मूत्र त्याग करना, अचित्त जल से भी बीजादि हटाकर उस जगह आचमन करना या वस्त्र - शरीर आदि की शुद्धि करना, ये सब बातें साधु के लिए अनाचरणीय हैं । साधु के लिए गृहस्थ का पात्र परपात्र है । उसमें साधु न तो आहार करे और न ही पेय पदार्थ पीए । क्योंकि गृहस्थ के पात्र को पहले या पीछे सचित्त जल से धोये जाने की तथा कदाचित् चुराये जाने या गिरकर टूट जाने की आशंका रहती है । अथवा स्थविरकल्पी साधु के लिए हाथ की अंजलि में खाना-पीना, परपात्र में खाना-पीना निषिद्ध है क्योंकि स्थविरकल्पी साधुओं की अंजलि छिद्रयुक्त होती है, उसमें से आहार- पानी आदि नीचे गिर जाने और अयत्ना होने की आशंका रहती है । इसलिए स्थविरकल्प साधु अंजलिरूप परपात्र में न खाए-पीए, जबकि जिनकल्पी साधु की अंजलि छिद्ररहित होती है, उनके लिए अंजलि ही स्वपात्र है, अन्य सभी ( स्थविरकल्पियों या गृहस्थों के) पात्र उनके लिए परपात्र हैं । उनमें वे न खाएँपीएँ, क्योंकि उनमें खाने-पीने से उनके संयम में विराधना होने का खतरा है। इसी प्रकार स्थविरकल्पी साधु वस्त्रधारी होते हैं, कदाचित् उनका वस्त्र कोई चुरा ले जाए, फाड़ दे, छीन ले या अत्यन्त जीर्ण हो जाए तो भी वह परवस्त्र यानी गृहस्थ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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