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सूत्रकृतांग सूत्र जाता है, वैसा अशुद्ध आहार-पानी साधु दूसरे साधुओं को न दे, क्योंकि वह संसार परिभ्रमण का कारण है, अतः विद्वान् मुनि इसका त्याग करे ।।२३।।
व्याख्या विद्वान् साधु इन अनाचरणीय बातों का त्याग करे
१०वीं गाथा से लेकर २३वों गाथा तक साधु के आचार-धर्म की बातों के सन्दर्भ में अनाचरणीय बातों की सूची दे दी है। और प्रत्येक गाथा के अन्त में यह निर्देश कर दिया है कि विद्वान् साधु इन्हें कर्मबन्ध का, अनर्थ या संसारपरिभ्रमण का कारण ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े। ८वों और हवीं गाथा में अहिंसा महाव्रत के सन्दर्भ में हिंसा के परित्याग के विषय में कहा गया था, अब १०वीं गाथा में मृषावाद, मैथुन, अदत्तादान और परिग्रह के त्याग को अनिवार्य धर्म बताया गया है, क्योंकि ये सब लोक में शस्त्र के समान हैं, तथा कर्मबन्ध के कारण हैं । मुसावायं का अर्थ झूठ बोलना है, बहिद्ध का अर्थ है मैथुन सेवन, उग्गहं का अर्थ है---परिग्रह, तथा अजाइया का अर्थ है --अदत्तादान । प्राणियों को पीडाकारक होने के कारण इन्हें शस्त्र कहा गया है। इनसे आठ प्रकार के कर्मों का ग्रहण करने के कारण इन्हें आदान भी कहा गया है। इसके पश्चात् शास्त्रकार ने पूर्ववत् चार कषायों का त्याग करने को साधु धर्म बताया गया है । 'पलिउचण' माया के लिए, भयणं लोभ के लिए, थंडिल्लं क्रोध के लिए और उस्सयणं मान के लिए प्रयुक्त किया गया है। ये चारों कषाय भी पूर्ववत् कर्मबन्धन के कारण होने के कारण त्याज्य हैं। मूलगुणों के सम्बन्ध में त्याज्य बातों का निर्देश करके अब शास्त्रकार १२वीं गाथा से उत्तरगुणों से सम्बन्धित दशवैकालिक आदि सूत्रों में वर्णित अनाचरणीय बातों के त्याग का निर्देश करते हैं---
___धोयणं-हाथ-पैर आदि एवं वस्त्र को शोभा के लिए धोना अनाचीर्ण है । वस्तिकर्म तथा विरेचन-एनिमा आदि तथा जुलाब लेना, दवा लेकर वमन करना, आँखों में शोभा के लिए कज्जल लगाना, तथा अन्य शरीर संस्कार जो संयम गुणों के विद्यातक हैं, साधु के लिए अनाचरणीय हैं। क्योंकि इनका साधुधर्मपालन से कोई वास्ता नहीं है, ये केवल शरीर मोहवश होते हैं।
शरीर-शृंगार ए. प्रसाधन से सम्बन्धित तथा अन्य बातें भी संथम की दृष्टि से वर्जनीय हैं, उनका १३ गाथा में निर्देश करते हैं ---शरीर पर सुगन्धित पदार्थ लगाना, माला धारण करना, स्नान करना, शोभा के लिए दाँत चमकाना, बहुमूल्य वस्तुओं का ममत्वपूर्वक संग्रह रखना, एवं देव, मनुष्य और तिर्यंचजाति की स्त्री का सेवन या हस्तमैथुन आदि कर्म करना, ये पापकर्मबन्ध के कारण हैं । इनसे साधु का नैतिक जीवन समाप्त हो जाता है । अतः ये सब त्याज्य हैं।
इससे अगली गाथा में अनेषणीय एवं दोषयुक्त आहार के ग्रहण एवं सेवन
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