SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 806
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म : नवम अध्ययन जो आहार आदि गृहस्थ द्वारा लाया गया है, जो आधाकर्मी आदि दोषयुक्त आहार से मिश्रित है, इस प्रकार जो आहार आदि किसी भी तरह से सदोष है, उसे संसार का कारण जानकर विचक्षण साधु उसका त्याग करे ।।१४।। रसायन, भस्म आदि का सेवन शरीर को बलिष्ठ एवं मोटा वनाने के लिए करना, शोभा के लिए आँखों में अंजन लगाना तथा शब्दादि विषयों में आसक्त होना एवं जिससे जीवों का घात हो, वैसा कर्म करना तथा ठंडे जल से अयत्नापूर्वक हाथ-पैर आदि धोना तथा शरीर में पीठी (उवटन) लगाना, इन बातों को संसार का कारण जानकर विवेकी साधु इनका त्याग करे ।।१५।। असंयतों के साथ सांसारिक बात करना, असंयम के अनुष्ठान की प्रशंसा करना एवं ज्योतिष के प्रश्नों का उत्तर देना तथा शय्यातर का पिण्ड लेना, इन बातों को संसारभ्रमण का कारण जानकर विवेकी साधु इनका परित्याग करे ।।१६।। साधु जुआ खेलना न सीखे तथा अधर्मप्रधान वाक्य न बोले तथा हाथापाई से, इस प्रकार का कलह और विवाद न करे। विद्वान् साधु इन बातों को संसारभ्रमण का कारण जानकर त्याग करे ।।१७।। जते पहनना, छाता लगाना, शतरंज खेलना, पंखे से हवा करना, जिससे कर्मवन्ध हो, ऐसी पारस्परिक क्रिया आदि को कर्मबन्ध का कारण जानकर विद्वान् मुनि इनका त्याग करे ।।१८।। साध हरी वनस्पति वाली जगह पर मल-मूत्र त्याग न करे एवं बीज आदि हटाकर अचित्त जल से आचमन या वस्त्रादि की शुद्धि न करे ।।१९।। साधु गृहस्थ के बर्तन में भोजन न करे, पानी न पीए एवं वस्त्ररहित या वस्त्र जीर्ण होने पर भी साधु गृहस्थ का वस्त्र न पहने, क्योकि ये सब संसारभ्रमण के कारण हैं, इसलिए विद्वान् मुनि इनका त्याग करे ।।२०।। साधू खटिया पर न बैठे और न पलंग पर सोए तथा गहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के बीच में जो छोटी गली होती है उसमें न बैठे एवं गृहस्थ का कुशल न पूछे तथा अपनी पूर्वक्रीड़ा का स्मरण न करे । इन सभी बातों को ससारपरिभ्रमण का कारण समझकर साधु इनका परित्याग करे ॥२१॥ यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दन, पूजा, प्रतिष्ठा तथा समस्त लोक के विषय-भोगों को संसारपरिभ्रमण का कारण जानकर विद्वान साधु उनको तिलांजलि दे दे ।।२२।। इस जगत् में जिस आहार-पानी के सेवन से साधु का सयम खराब हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy