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________________ ७५८ , उपानहौ च छत्रञ्च, नालिकं बालव्यजनम् परिक्रियाञ्चाऽन्योऽन्यं तद् विद्वान् परिजानीयात् उच्चारं प्रस्रवणं हरितेषु न कुर्यान्मुनिः विकटेन वाऽपि संहृत्य, नाचमेत कदाचिदपि परामन्नपानं, न भुंजीत कदाचिदपि परवस्त्रमचेलोऽपि तद् विद्वान् परिजानीयात् आसन्दी पर्य्यकञ्च निषद्यां च गृहान्तरे संप्रश्नं स्मरणं वाऽपि तद् विद्वान् परिजानीयात् यशः कीर्तिः श्लोकञ्च, या च वन्दन-पूजना सर्वलोके ये कामास्तद् विद्वान् परिजानीयात् येह निर्वद् भिक्षुरन्नपानं यथाविधम् अनुप्रदानमन्येषां तद् विद्वान् परिजानीयात् " 1 सूत्रकृतांग सूत्र 1 118511 1 112211 / ||२०|| 1 ||२१|| अन्वयार्थ ( मुसावा) असत्यभाषण, (बहिद्ध च) मैथुन - सेवन करना, ( उग्गह) उद्ग्रहपरिग्रह रखना, ( अजाइया) तथा अदत्तादान लेना (लोगंसि सत्थादाणाई) ये सब लोक में शस्त्र के समान और कर्मबन्धन के कारण हैं । (विज्जं तं परिजाणिया) विद्वान् साधक इन्हें ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग करे ॥ १० ॥ ||२२|| 1 ॥२३॥ (पलिउंचणं च ) माया, ( भयणं च ) और भजन - लोभ ( थंडिल्लुस्सयणाणि य) स्थण्डिल---क्रोध तथा उच्छ्रयण मान का ( धूण) त्याग करो, (लोगंसि आदानाई) क्योंकि ये सब लोक में कर्म-बन्धन के कारण हैं । (विज्जं तं परिजाणिया ) इसलिए विद्वान् मुनि इन्हें जानकर इनका त्याग करे ।। ११ ।। Jain Education International ( धोयण) हाथ-पैर तथा वस्त्र आदि धोना, ( रयणं) तथा उन्हें रंगना, ( वत्थीकम्म विरेयणं) वस्तिकर्म करना - एनिमा वगैरह लेना, विरेचन (जुलाब) लेना, (मजणं) दवा लेकर वमन (उलटी-कै) करना, आँखों में अजन ( काजल आदि ) लगाना, (पलीमंथ तं ) इत्यादि संयम के नष्ट करने वाले कार्यों (पलिमंथों) को (विज्जं परिजाणिया) विद्वान् साधक जानकर इनका त्याग करे || १२ || For Private & Personal Use Only ( गंध मल्ल सिणाणं च ) शरीर में सुगन्धित पदार्थ लगाना, पुष्पमाला या अन्य कोई माला धारण करना, स्नान करना, ( तहादतपत्रखालणं) तथा दाँतों को धोना साफ करना, (परिगहित्थिकम्मं च ) परिग्रह ( सोने चाँदी के सिक्के, नोट या सोनेनाँदी, हीरे आदि या उनके आभूषण) रखना, तथा स्त्रीसंभोग करना (तं विज्जं परिजाणिया) विद्वान् मुनि इन्हें पाप का कारण जानकर इनका त्याग करे ।। १३ ।। (उद्देशिय ) साधु को देने के उद्देश्य से जो आहारादि तैयार किया गया है, वह औद्द शिक, ( कोयगड) साधु के लिए जो खरीदा गया है तथा बनाया गया है, www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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