________________
धर्म : नवम अध्ययन
७५६
( पामिच्चं ) एवं साधु को देने लिए जो दूसरे से उधार लिया गया है, ( आहड a) और साधु को देने के लिए जो गृहस्थ द्वारा लाया हुआ है, (पूयं) जो आधाकर्मी दोषयुक्त आहार से मिला हुआ है, (अर्णसणिज्जं च ) तथा जो आहारादि दोषयुक्त है, अशुद्ध है, (विज्जं तं परिजाणिया ) विद्वान् मुनि इन सबको संयमविघातक एवं संसारपरिभ्रमण के कारण जानकर इनका त्याग करे || १४ |
(आसूणिमक्खिरागं च ) भस्म, रसायन आदि खाकर शरीर को बलिष्ठ व मोटा बनाना, शोभा के लिए आँखों में अंजन लगाना, (गिद्ध वघायकम्मगं ) शब्दादि विषयों में वृद्धि - आसक्ति रखना, तथा जिस कर्म से जीवों का घात होता है, उसे करना, (उच्छोलणं च कक्कं च) अयतना ( असावधानी) से हाथ-पैर आदि शीतल अप्रासु जल से धोना, शरीर में पीठी ( उवटन) लगाना (विज्जं तं परिजाणिया ) इन सबको विद्वान् मुनि कर्मबन्धन एवं संसारपरिभ्रमण के कारण जानकर इनका परित्याग करे ।। १५ ।।
( संपसारी) असंयतों के साथ सांसारिक बातें करना, ( कय करिए ) असंयम अनुष्ठान की प्रशंसा करना, ( परिणायतणाणि य) ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देना, ( सागरियं च पिंडं च ) तथा शय्यातर ( जिसकी आज्ञा से मकान में साधु ठहरा है) का पिण्ड (आहार) ग्रहण करना, (विज्जं तं परिजाणिया ) इन बातों को विद्वान् साधु संसारभ्रमण का कारण जानकर इनका त्याग करे ||१६||
( अट्ठावयं न सिक्खिज्जा ) साधु जुआ खेलना न सीखे, ( वेहाईयं णो वए) सद्धर्म के विरुद्ध बात न कहे, (हत्थकम्मं विवायं च ) तथा वह हस्तकर्म न करे या हाथापाई (झगड़ा बढ़ाकर ) न करे, तथा व्यर्थ का विवाद न करे, (विज्जं तं परिजाणिया ) विद्वान् मुनि इन्हें संसारवृद्धि के कारण समझकर इनका परित्याग करे ॥ १७॥
( पाणहाओ य छत्त च) जूते पहनना और छाता लगाना, ( णालीयं बालatri) जुआ खेलना और पंखे से हवा करना (अन्नमन्नं च परकिरियं) एक के द्वारा करने योग्य क्रिया दूसरे द्वारा करना और दूसरे द्वारा करणीय क्रिया पहले द्वारा करना इस प्रकार अन्योन्यपरक्रिया करना, (विज्जं तं परिजाजिया ) विद्वान् साधु इन सबको कर्मबन्धन के कारण जानकर इनका परित्याग करे || १८ ||
( मुणी उच्चारं पासवणं हरिएसु ण करे) साधु हरी वनस्पति (हरियाली) वाले स्थान में मल-मूत्र त्याग न करे, (साह) तथा वीज आदि को हटाकर ( विडे वावि) अचित्तजल से भी ( कयाइ वि) कदापि (णायमेज्जा अथवा नावमज्जे) आचमन न करे, या वस्तु शुद्धि या शरीर शुद्धि न करे ॥ १६ ॥
( परमते अन्नपाणं कथाइ वि ण भुंजेज्ज ) दूसरे के यानी गृहस्थ के बर्तन में साधु कदापि अन्न या जल का सेवन न करे । (अवेलोऽवि परवत्थं ) साधु वस्त्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org