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सूत्रकृतांग सूत्र
कि जो दुस्त्याज्य है, विनाश करने वाला है, या आत्मा के भीतर दबा- छिपा रहता है, उस सन्ताप ( सजीव या निर्जीव किसी भी पदार्थ के प्रति द्वेष, घृणा या शोक ) को छोड़कर अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग जो आस्रव के स्रोत हैं, जो संयमीजीवन या धर्ममय जीवन का अन्त करने वाले हैं, उन्हें छोड़कर सबसे निरपेक्ष होकर मोक्ष-पथ पर प्रगति करे । एक अनुभवी चारित्रात्मा ने कहा है छलिया अवयक्खता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पवयण सारे निराजयक्खेण होयव्वं ॥ १ ॥ भोगे अवयवखता पति संसारसागरे घोरे । भोगेहिं निरवयक्खा तरंति संसारकंतारं ॥२॥ अर्थात् - जिन्होंने परपदार्थों की या परिग्रह की अपेक्षा (ममता ) रखी, वे ठगा गये, जो उनसे निरपेक्ष रहे वे निर्विघ्न होकर संसार सागर को पार कर गए। जो साधक भोगों की अपेक्षा रखते हैं, वे घोर संसार - समुद्र में डूब जाते हैं, किन्तु जो भोगों से निरपेक्ष रहते हैं, वे संसाररूपी अटवी को पार कर जाते हैं ।
free यह है कि साधु के लिए सांसारिक पदार्थों से लगाव रखना अधर्म है और निरपेक्ष रहना धर्म है ।
मूल पाठ पुढवी उ अगणी वाऊ, तणरुक्खसबीयगा 1 अंडया पोयजराऊ रस- संसेय- उभिया 11511 एतेहि छह काहि तं विज्जं परिजाणिया । मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही ॥ ६ ॥ संस्कृत छाया पृथिव्या पोऽग्निर्वायुस्तृणवृक्षाः सबीजकाः
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अण्डजाः पोतजरायुजाः, रस- संस्वेदोद्भिज्जाः ||८|| एनः षड्भिः कायैस्तद् विद्वान् परिज्ञाय
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मनसा कायवाक्येन, नारम्भी न परिग्रही
अन्वयार्थ
( पुढवी उ अगणी वाऊ तणरुक्खसबीयगा) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा तृण, वृक्ष और बीजसहित वनस्पति, (अंडया पोयजराऊ रससंसेयउब्भिया ) एवं अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, तथा उद्भिज्ज ये सब षट्कायिक जीव हैं ||
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( विज्ज) विद्वान् साधक ( एतेहि छहि काहि ) इन छह कायों से ( तं परिजाणिया) इन्हें जीव जानकर अथवा ज्ञपरिज्ञा से इन्हें जानकर ( मणसा कायवक्केणं)
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