SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 800
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म : नवम अध्ययन मन, वचन और काया से (णारंभी ण परिग्गही ) प्रत्याख्यानपरिज्ञा से न इनका आरम्भ (हिंसा) करे और न ही इनका परिग्रह करे || || भावार्थ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और तृण-वृक्ष, बीजयुक्त वनस्पति, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज एवं उद्भिज्ज- ये सब षड्जीवनिकाय हैं । विद्वान् साधक इन छह कायों के रूप में इन्हें ज्ञपरिज्ञा से जीव जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से मन-वचन काया से न तो इनका आरम्भ करे और न ही इनका परिग्रह करे । ७५५ व्याख्या षट्जीवनिकाय के आरम्भ परिग्रह का त्याग करे इन दोनों गाथाओं में शास्त्रकार ने दो बातें साधुधर्म के रूप में बताई हैं (१) सर्वप्रथम संसार के समस्त प्राणियों को षट्जीवनिकाय के रूप में ज्ञपरिज्ञा से जाने, (२) उन सभी प्रकार के जीवनिकायों का न तो आरम्भ करे, और न परिग्रह यानी प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उन जीवों के आरम्भ एवं परिग्रह का त्याग करे । कितनी सुन्दर प्रेरणा शास्त्रकार ने साधक को दे दी है ! षट्जी निकाय इस प्रकार हैं (१) पृथ्वी काय, (२) अप्काय, ( ३ ) तेजस्काय, (४) वायुकाय, (५) वनस्पतिकाय और ( ६ ) सकाय । पृथ्वीकाय के अन्तर्गत मिट्टी, मुरड़, खड़ी, गेरू, हींगलू, हड़ताल, हिरमच आदि आते हैं । फिर उसके सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त आदि भेद हैं । इसी प्रकार अकाय के अन्तर्गत ओस, खार, समुद्र, नदी, कुए, तालाब आदि सब प्रकार का सचित्त पानी आदि हैं। फिर उनके भी सूक्ष्म आदि भेद हैं। तेजस्काय अग्नि, अंगारा, ज्वाला, भोभर, चिनगारी आदि सबका समावेश हो जाता है । उसके भी सूक्ष्म आदि भेद हैं । वायुकाय में उक्कलियावात, मंडलियावात, घनवात, तनुवात, शुद्धवात आदि का समावेश हो जाता है । वायुकाय के भी सूक्ष्म आदि भेद हैं । इसके पश्चात् वनस्पति के कुछ प्रकारों का शास्त्रकार नामोल्लेख करते हैं--" तगरुक्खसबीयगा ।" अर्थात् - वनस्पतिकाय के अन्तर्गत तृण, वृक्ष, वीज आदि हैं । इसके सिवाय वनस्पतिकाय के फल, फूल, डाली, स्कन्ध, पत्ते, दूब, अंकुर, काई आदि अनेकों प्रकार हैं । इसके भी सूक्ष्म आदि भेद पूर्ववत् समझ लेने चाहिए । कुश, कास, हरी घास, दूब आदि तृण कहलाते हैं । अशोक, आम, नीम, जामुन आदि वृक्ष कहलाते हैं । धान्य (शालि), गेहूं, जौ, मक्का, चना आदि बीज हैं। ये पाँचों ही जीवनकाय एकेन्द्रिय हैं और स्थावर कहलाते हैं । छठे त्रसकाय का निरूपण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - अण्डज - अंडे से उत्पन्न होने वाले पक्षी, गृहकोकिल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy