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________________ ७४८ सूत्रकृतांग सूत्र का बहुत उपदेश दिया था, उपदेश ही नहीं अहिंसा का सूक्ष्मतापूर्वक आचरण भी किया था, अत: आप हमें यह बताने की कृपा करें कि उन वीत राग सर्वज्ञ प्रभु ने कौन-से धर्म का उपदेश दिया था ? या किसे धर्म बताया था ? शिष्यों की जिज्ञासा जानकर श्री सुधर्मास्वामी ने कहा-'तो लो, जिनवरों के द्वारा प्ररूपित उस धर्म का यथार्थ वर्णन मुझ से सुन लो ।' वस्तुत: उस युग में अनेक तथाकथित तीर्थकर कहलाते थे, अनेक धर्मप्रवर्तक भी थे, विभिन्न कर्मकाण्डप्रधान वैदिक याज्ञिक भी थे और वे सब अपने-अपने ढंग से धर्म के सम्बन्ध में बताते थे। इसलिए साधारण जनता उनके अलग-अलग विचार और मत सुनकर चक्कर में पड़ जाती थी। कोई वेदविहित बातों पर चलने को धर्म कहते थे, कोई कहते थे--जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति हो, वह धर्म है, कोई अमुक-अमुक क्रियाकाण्ड को धर्म बताता था। इसलिए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि त्रिकाल-त्रिलोकज्ञाता परम-अहिंसाधर्मी भगवान् महावीर ने आखिर किसको धर्म बताया था ? कौन-से धर्म का उन्होंने निर्देश किया था? इसी प्रश्न पर श्री सुधर्मास्वामी द्वारा भगवान् महावीरप्रतिपादित धर्म का इस अध्ययन में वर्णन है। मूल पाठ माहणा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अदु वोक्कसा । एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभणिस्सिया ॥२॥ परिग्गहनिविट्ठाणं, वेरं तेसि पवडढइ आरंभसंभिया कामा, न ते दुक्खविमोयगा ॥३॥ संस्कृत छाया ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याश्चाण्डाला अथ वोक्कसाः । एषिका वैशिकाः शूद्राः ये चारम्भनिश्रिताः ॥२॥ परिग्रहनिविष्टानां, वैरं तेषां प्रवर्धते आरम्भसंभृताः कामा न ते दुःख-विमोचकाः ॥३॥ अन्वयार्थ (माहणा खत्तिया वेस्सा चंडाला अदु वोक्कसा एसिया वेसिया सुद्दा) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल तथा वोक्कस (अवान्तर जातीय वर्णसंकर) एषिक (शिकारी, हस्तितापस या पाषण्डी) वैशिक (मायाप्रधान कलाजीवी) तथा शूद्र ( जे य आरंभणिस्सिया) और जो भी आरम्भ में रत रहने वाले जीव हैं, (परिग्गहनिविट्ठाणं तेसि वेरं पवड्ढइ) परिग्रह में आसक्त रहने वाले इन प्राणियों का दूसरे प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है। (आरंभसंभिया कामा) वे कामुक या विषयलोलुप जीव पवर्धते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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