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________________ धर्म : नवम अध्ययन ७४६ आरम्भ (जीवहिंसाजनक आरम्भ) से परिपूर्ण हैं, (ते न दुक्खविमोयगा) वे दुःखरूप आठ प्रकार के कर्मों को नहीं छोड़ नहीं सकते । भावार्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, वोक्कस, एषिक, वैशिक, शूद्र तथा और जो भी प्राणी आरम्भरत रहते हैं, उन परिग्रहासक्त जीवों का दूसरे जीवों के साथ अनन्तकाल तक वैर बढ़ता रहता है। अतः आरम्भ से लबालब भरे हुए, वे विषयलोलुप जीव आठ प्रकार कर्मों का त्याग कदापि नहीं कर सकते। व्याख्या __ आरम्भ-परिग्रहरत जीवों का स्वभाव और दुष्परिणाम । प्रस्तुत गाथा में जिनप्ररूपित धर्म के सन्दर्भ में उसका प्रतिपक्षी अधर्म किस-किस रूप में पनपता है, और वे उसका क्या फल पाते हैं ? यह बताया गया है। क्योंकि जब तक अधर्म को नहीं समझ लिया जाता, तब तक धर्म की पहचान नहीं हो सकती । अधर्म का आश्रय लेने वाले किस-किस प्रकार से अधर्म के एक अंग --- आरम्भजनित हिंसा को अपनाते हैं। शास्त्रकार कुछ नाम निर्देशपूर्वक बताते हैंब्राह्मण, पशुबलि या पशुवधमूलक यज्ञों, होमों में आरम्भ करते हैं। क्षत्रिय निर्दोष पशुओं का शिकार करके या मांसाहार करके, वैश्य भी अन्य आरम्भ-समारम्भ करके हिंसा करते हैं। चाण्डाल तो पशुहिंसा करने में प्रसिद्ध हैं ही। वोक्कस अवान्तर जातीय को कहते हैं-जैसे ब्राह्मण और शूद्री के संसर्ग से, ब्राह्मण और वैश्य-स्त्री के संसर्ग से या क्षत्रिय और शूद्री के संसर्ग से उत्पन्न वोक्कस कहलाते हैं । जो मांस के लिए मृग, हाथी या अन्य जीवों को ढ ढ़ते-फिरते हैं, वे शिकारी या हस्तितापस एषिक कहलाते हैं, वैशिक कहते हैं-- विविध कलाजीवी को, शूद्र असंस्कारी तुच्छ जातीय होता है, ये और इस प्रकार के अन्य जो भी लोग अहर्निश आरम्भजनित हिंसा में रत रहते हैं, वे लोभवश परिग्रहवृद्धि के लिए ही ऐसा करते हैं, लेकिन उस हिसारूप अधर्म के फलस्वरूप वे जन्म-जन्मान्तर तक उन जीवों के साथ वैर बाँध लेते हैं, और उसकी परम्परा चलाते रहते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि जो व्यक्ति जिस तरह जिस प्राणी का घात करता है, वह उसी तरह संसार में सैकड़ों बार नाना प्रकार के दुःख भोगता है। जमदग्नि और कृतवीर्य की तरह पुत्र और पौत्रों-प्रपौत्रों तक चलने वाली उनकी वैर परम्परा का अन्त नहीं आता। इसलिए आरम्भ के कामों में रात-दिन रचे-पचे रहने वाले वे विषयलोलुप जीव असातावेदनीयरूप दुःखदायक आठ कर्मों से कथमपि पिंड नहीं छुड़ा सकते हैं, वे दुःखद दुष्कर्म उन्हें घेरे रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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