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________________ धर्म : नवम अध्ययन ७४७ स्वभाव है, उसे उसका धर्म समझना चाहिए। गृहस्थों के भी जो कुल, नगर, ग्राम, राष्ट्र आदि से सम्बन्धित नियमोपनियम या मर्यादाएँ हैं, कर्तव्य हैं, अथवा दायित्व हैं, उन्हें कुलधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि समझने चाहिए। अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार के पुण्य गृहस्थों के प्रति गृहस्थों के दान-पुण्यरूप हैं, उन्हें भी द्रव्यधर्म जानना चाहिए। भावधर्म नो-आगम से दो प्रकार का है -लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है-एक गृहस्थों का, दूसरा पाषण्डियों का। लोकोत्तर धर्म ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। इस धर्माध्ययन में ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पन्न साधुओं का जो धर्म है, उसके सम्बन्ध में खासतौर से निरूपण किया गया है । अत: इस सन्दर्भ में इस अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार है ... मूल पाठ कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मईमया ? अंजु धम्मं जहातच्चं, जिणाणं तं सुणेह मे ॥१॥ संस्कृत छाया कतरो धर्म आख्यातः माहनेन मतिमता ? ऋजुधर्म यथातथ्यं जिननां तं शृणुत मे ।।१।। __ अन्वयार्थ (मईमया) केवलज्ञानसम्पन्न (माहणेण) अहिंसा (मा-हन--जीवों को मत मारो) का परम उपदेश देने वाले भगवान महावीर स्वामी ने (कयरे धम्मे अक्खाए) कौन-सा धर्म बताया है ? (जिणाणं) जिनवरों के (तं अंजु धम्म) उस सरल धर्म को (जहातच्चं) यथार्थ रूप से (मे सुणेह) मुझ से सुनो। भावार्थ केवलज्ञानी तथा अहिंसा के परम उपदेष्टा भगवान् महावीर ने कौनसा धर्म बताया है ? श्री जम्बूस्वामी आदि के इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं- "लो जिनवरों के उस सरल धर्म को मुझ से सुनो।" व्याख्या भगवान् महावीर ने कौन-सा धर्म बताया था? इस अध्ययन की प्रथम गाथा में जम्बूस्वामी आदि द्वारा प्रश्न उठाया गया है कि विश्व में बहुत-से धर्म हैं, सभी मत-पंथवादी लोग अपनी-अपनी दृष्टि से धर्म की प्ररूपणा और उसकी व्याख्या करते हैं । चूंकि भगवान महावीर, जैसा कि हमने सुना है, बहुत बड़े धर्मोपदेशक थे, उन्होंने अपने केवलज्ञान के दिव्य प्रकाश में अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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