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धर्म : नवम अध्ययन
अध्ययन का संक्षिप्त परिचय
आठवें अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब नौवाँ अध्ययन प्रारम्भ किया जा रहा है। आठवें अध्ययन में बालवीर्य और पण्डितवीर्य का वर्णन किया गया था । पण्डितवीर्य उसी का समझा जाता है, जो धर्माचरण में पुरुषार्थ करता है । इस सम्बन्ध में नौवाँ धर्माध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। इस अध्ययन में धर्म के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। नियुक्तिकार के कथनानुसार इस अध्ययन में भावधर्म' का अधिकार है, क्योंकि भावधर्म ही वास्तव में धर्म है । दशवकालिक सूत्र के प्रथम और छठे (धर्मार्थकाम नामक) अध्ययन में भी इसी दुर्गति-गमन से जीव को बचाने वाले धर्म का प्रतिपादन किया है । आगे के दसवें और ग्यारहवें अध्ययन में भी यही बात बताई जाएगी । क्योंकि भावसमाधि या भावमार्ग और धर्म एक ही चीज है। परमार्थतः इनमें कोई अन्तर नहीं है। धर्म के जो श्रु त-चारित्र रूप प्रकार हैं, अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश भेद हैं, उनमें और भावसमाधि में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि क्षमा आदि उत्तम गुणों को अपने में भलीभाँति स्थापित करना ही तो भावसमाधि है और ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मुक्तिमार्ग भी तो प्रकारान्तर से भावधर्म है। निक्षेपदृष्टि से धर्म के विभिन्न अर्थ
___ धर्म के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार निक्षेप होते हैं । नाम और स्थापनाधर्म तो सुगम है। द्रव्यधर्म, जो ज्ञशरीर-भव्यशरीर से व्यतिरिक्त है, तीन प्रकार का है—सचित्तधर्म, अचित्तधर्म और मिश्रधर्म । सचित्त यानी जीते हुए शरीर से युक्त जीव का धर्म (स्वभाव) उपयोग रूप है । अचित्त यानी धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी जो जिसका स्वभाव है, वह उसका धर्म है। जैसे धर्मास्ति काय का स्वभाव गमनक्रिया में सहायता देना, अधर्मास्तिकाय का ठहरने में सहायता देना, आकाशास्तिकाय का स्वभाव अवगाहन देना, तथा पुद्गलास्तिकाय का पूरण-गलनविध्वंसनरूप स्वभाव है । मिश्रद्रव्य जो दूध और जल आदि हैं, उनमें भी जो जिसका
१. धम्मो पुवुट्ठिो भावधम्मेण एत्थ अहिगारो।
एरोव होइ धम्मे एसेव समाहिमग्गोत्ति ॥
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