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________________ वीर्य : अष्टम अध्ययन ७४५ '' आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।' आशय यह है कि देहभक्ति को केवल वचन और काया से ही नहीं, मन, बुद्धि और हृदय से सर्वथा छोड़कर यानी मेरा शरीर है ही नहीं, इस प्रकार से विचार करे । तथा देह के प्रति जो सूक्ष्म ममत्व हो, उसका भी त्याग करने के लिए कायोत्सर्ग या कायव्युत्सर्ग करे । शरीर को किसी भी अकुशल अनिष्ट विचार, वचन, या चेष्टा में न लगाए, कदाचित् मन, वचन या शरीर पूर्वसंस्कारवश उधर जाता हो तो उसे बलपूर्वक रोक दे। इसीलिए यहाँ--कायं विउस्सेज सव्यसो' कहा है। जब देहभक्ति छोड़ दी तो मन-वचन या काया को किसमें लगाए ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं 'झाणजोगं समाहर्ट्स' (ध्यानयोग को सम्यक् अपनाए) । तात्पर्य यह है कि वह साधक आत्म-भक्ति करे । अपनी आत्मा में-- आत्मस्वभाव में लीन होने के शिए देहभक्ति सर्वथा छोड़कर पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान करे । ध्यान का लक्षण है - 'उत्तम संहननस्येकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्'' या 'तत्प्रत्येकतानता ध्यानम् ।'२ अर्थात् उत्तम संहनन वाले व्यक्ति का चित्त को किसी एक आत्म-विषयक पदार्थ में एकाग्र करके बाह्य (दैहिक) विषयों के चिन्तन से रोकना ध्यान है, अथवा किसी ध्येय के प्रति एकतान हो जाना ध्यान है। निष्कर्ष यह है कि दैहिक (शरीर या शरीर से सम्बन्धित) विषयों से मन-वचन-काया को सर्वथा हटाकर पूर्वोक्त लक्षणयुक्त धर्मध्यान या शुक्लध्यान (आत्मा को कर्मों से मुक्त करने के लिए धर्म या धर्मागों का या शुद्ध आत्मा या आत्मगुणों का ध्यान) को पिण्डस्थ आदि प्रकारों में से अपनी योग्यतानुसार किसी एक प्रकार से अपनाए। उक्त ध्यान के दौरान जो भी संकट, परीषह, उपसर्ग या कष्ट आएँ आत्मा का परमधर्म जानकर उन्हें सहन करे और इस प्रकार की आत्म-भक्ति में मोक्ष प्राप्त होने तक डटा रहे। यही पण्डितवीर्य--अकर्मवीर्य का सर्वोत्कृष्ट निदर्शन है। इति शब्द समाप्ति अर्थ में है, 'ब्रवीमि' पूर्ववत् है । इस प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र का अष्टम वीर्य नामक अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ। ॥ वीर्य नामक अष्टम अध्ययन समाप्त ॥ १. तत्त्वार्थसूत्र अ०६ २. योगदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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