SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 789
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृतांग सूत्र भी प्रणाम करते है । व्यवहार सूत्र में साधु-साध्वी के आहार की मात्रा बताई गई है। मुर्गी के अंडे के बराबर ८ कौर आहार करने वाला अल्पाहारी है, जो १२ कौर आहार करता है, वह अपार्ध ( आधे से कम) आहार करके ऊनोदरी करता है । १६ कौर आहार करना द्विभाग प्राप्त आहारी है, २४ कौर आहार करने वाला अल्प - ऊनोदरिक है, ३० कौर आहार करने वाला प्रमाण प्राप्तहारी है और ३२ कौर आहार करने वाला पूर्ण आहारी है । साधु को आहार- पानी की मात्रा घटाने का तथा अन्य साधनों एवं कषायादि कम करने का अभ्यास करना चाहिए । ७४४ मूल पाठ झाणजोगं समाह कार्य विउसेज्ज सब्वसो , तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वज्जासि ||२६|| ॥ त्ति बेमि ॥ संस्कृत छाया ध्यानयोगं समाहृत्य, कायं व्युत्सृजेत् सर्वशः तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, आमोक्षाय परिव्रजेत् अन्वयार्थ ( झाणजोगं समाहट्ट ) साधु ध्यानयोग (चित्तनिरोधरूप साधना ) को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके ( कायं विउस्सेज्ज सव्वसो) पूर्णरूप से काया का व्युत्सर्ग-अनिष्ट प्रवृत्तियों से निरोध करे । ( तितिक्खं परमं णच्चा) परीषहों और उपसर्गो के समभावपूर्वक सहिष्णुता को उत्तम समझ कर ( आमोक्खाय परिव्वज्जासि ) सम्पूर्ण कर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में प्रवृत्त - संलग्न रहे । भावार्थ 1 ॥ २६ ॥ ॥ इति ब्रवीमि ॥ साधु ध्यानयोग को अपनाकर समस्त बुरे व्यापारों (प्रवृत्तियों) से अपने तन- मन-वचन को रोक दे, शरीर पर से ममत्व छोड़ दे, परीषहउपसर्ग - जनित कष्टों को सहन करना अच्छा जानकर जब तक समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त न हो जाय, तब तक संयम पालन में जुटा रहे । व्याख्या काया की भक्ति से दूर रहकर आत्मभक्ति में ओतप्रोत रहे साधुजीवन में मोक्ष प्राप्ति के लिए देह गौण होता है, आत्मा मुख्य होती है । देह की भक्ति को छोड़कर साधु आत्म-भक्ति अधिकाधिक कर सके इसके लिए शास्त्रकार इस अध्ययन की अन्तिम गाथा में कुछ प्रक्रिया बता रहे हैं-'झाणजोगं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy