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वीर्य : अष्टम अध्ययन
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। मोक्षाभिलाषी के लिए ऐसा दैनिक स्वाभाविक क्रम तभी हो सकता है, जब वह अपनी प्रतिदिन की चर्या में कम से कम चीजों का उपयोग करे । अपनी प्रकृति, आदत, विचारधारा और आचार -प्रणाली ही ऐसी बना ले कि कम से कम वस्तुओं या साधनों से वह अपने शरीर और जीवन का निर्वाह कर सके। परन्तु जो साधक अपनी आवश्यकताएँ बढ़ा लेता है, अपनी प्रसिद्धि और प्रशंसा की भूख बढ़ा लेता है, अपने जीवन में लोगों से अधिक परिचय, सम्पर्क और आकर्षित करने या कोई स्वार्थ सिद्ध करने की आदत बना लेता है, या फिर बात-बात में लोगों से उलझ जाता है, अपना बड़प्पन दिखाने के लिए गर्वस्फीत भाषा में बोलता है, चुप एवं मौन नहीं रह सकता है, पाँचों इन्द्रियों के विषयों का कम से कम और वह भी अनासक्ति (राग-द्वं षरहितता) पूर्वक उपयोग करने के बदले अधिकाधिक व अनियंत्रित, अमर्यादित उपयोग करने लग जाता है, तब उसकी मूल साधना छूट जाती है, उसका ध्यान, मौन, स्वाध्याय, तप, जप आदि छूट जाते हैं, करता है तो भी बिना मन से, बिना लगन और स्फूर्ति के, निरुत्साही और अशान्त होकर करता है । ऐसी स्थिति में साधना पण्डितवीर्य सम्पन्न एव तेजस्वी नहीं बनती । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं - 'अपडास पाणासि वीतगिद्धि सदा जए।' साधु को अपना शरीर न तो मोटा-ताजा एवं बलिष्ठ बनाना है, और न ही सुन्दर व मोहक बनाना है, यह काम तो भोगियों का है, और फिर आत्मा तो निराहारी है, साधु जो कुछ भी आहार करता है, वह शरीर से धर्मपालनार्थ, संयमयात्रा सुखपूर्वक निर्विघ्नता से चलाने के लिए विवश होकर करता है । इसलिए त्यागी साधु कम से कम आहार ( भोज्य पदार्थों की संख्या और मात्रा दोनों में अल्पतम) लेकर मस्ती से अपनी संयमयात्रा चलाए । भोज्य द्रव्यों की अधिक संख्या या अधिक मात्रा में आहार लेने जाएगा तो उसे या तो दानियों की गुलामी या दीनता करनी पड़ेगी, या उसे प्राप्त करने के लिए अधिक समय और शक्ति लगानी पड़ेगी । यही बात पानी या पेय पदार्थों के लिए समझनी चाहिए। वाणी की शक्ति मिली है तो उसका उपयोग कम से कम करके उस शक्ति को आत्मसाधना में लगाए। जैसे आहार- पानी की ऊनोदरी तपस्या होती है, वैसे ही वस्त्रपात्र आदि अन्य आवश्यक साधनों की भी हो सकती है । इसी प्रकार क्रोधादि कषाय, पंचेन्द्रियविषय आदि की भी भाव - ऊनोदरी होती है, अर्थात् वह कषाय, विषय और आहार तीनों की ऊनोदरी करे। कम से कम पदार्थों का उपयोग करके सुख और सन्तोष से संयम पालन करे। कहा भी है
थवाहा थोवभणिओ अ जो होइ थोवनिद्दो य । थोवो हिउवकरणो तस्स हु देवावि पणमंति ॥
अर्थात् -- जो साधक थोड़ा आहार करता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी नींद लेता है, अपने संयम के उपकरण और साधन बहुत ही थोड़े रखता है, उसे देवता
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