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________________ ७४२ व्याख्या महाकुलीन साधु पूजाप्रतिष्ठा के लिए तप न करें जो कुल शूरवीरता, दानशीलता, तपस्या आदि के कारण नामी हैं, जैसे इक्ष्वाकुकुल, उग्रकुल, भोगकुल आदि थे या हैं, वर्तमान में अन्य कुल भी हैं, जिनका यश जगत् में फैला हुआ हो, उन महाकुलों में जन्मे हुए जो व्यक्ति त्याग - वैराग्य से सम्पन्न होकर भागवती दीक्षा अंगीकार करने के बाद पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं या अपने कुल आदि की दृष्टि से स्वयं प्रशंसा करते हैं, किसी कामना से तप करते हैं, किसी स्वार्थ से तप करते हैं तो उनका वह तप अशुद्ध हो जाता है । पण्डितवीर्यसम्पन्न साधक को तप आदि क्रियाएँ चुपचाप बिना शोहरत या प्रसिद्धि के करनी चाहिए | जिससे दान में श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति जान न सकें । साधक स्वयं भी अपने मुँह से अपनी तारीफ न करे कि मैं अमुक कुल में जन्मा था, अमुक मेरे मातापिता थे, मैं धनिक या सत्ताधीश था या मैं महातपस्वी हूँ । इस प्रकार स्वयं की शोहरत करके अपनी तपस्या को निःसार न बनाए । मूल पाठ अपापडास पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए खंतेऽभिनिवडे दंते, वीत गिद्धी सदा जए सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया अत्यपिण्डाशी पानाशी, अल्पं भाषेत सुव्रतः क्षान्तोऽभिनिर्वृतोदान्तो, वीतगृद्धिः सदा यतेत ||२५|| । ॥२५॥ अन्वयार्थ (अपडास पाणासि ) साधु उदरनिर्वाह के लिए अल्पाहारी हो, थोड़े-से जल से काम चलाए, (अप्पं भासेज्ज सुव्वए) सुव्रत पुरुष थोड़ा बोले (खते अभिनिवडे दंते वीतगिद्धी) तथा क्षमाशील, लोभादिरहित शान्त, दान्त एवं विषयभोगों में अनासक्त होकर (सदा जए) सदा संयमपालन में प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करे । भावार्थ साधु उदरनिर्वाह के लिए थोड़ा-सा आहार ले, अल्प जल का उपयोग करे, थोड़ा बोले, क्षमाशील बने, लोभादि से दूर शान्त रहे, इन्द्रियदमन करे, विषयोपभोगों में अनासक्त होकर रादा संयमपालन का प्रयत्न करे । व्याख्या Jain Education International साधु का निवृत्तिमय शान्त पुरुषार्थ साधु-जीवन त्यागप्रधान होता है । साधु का सदा यह प्रयत्न रहता है कि सांसारिक वस्तुओं की जितनी कम मात्रा से निर्वाह हो सके, उतने से काम चला For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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